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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अपस्मार ३८६ मा० नि० । बारबार चेत कर लेना, त्वचा का पीला पड़ जाना, भूमि को खोदने लगना, प्यास का लनना और भयानक, प्रदीप्त एवं क्रोधित रूप देखना श्रादि लक्षण वाग्भट्ट महोदय ने अधिक लिखे हैं । कफापस्मार - कफ की मृगी वाला रोगी सफेद रंग के रूप को देखकर ( मानो कोई श्वेत का मनुष्य सामनेसे उसके पास दौड़ा श्राता हैं ऐसा देखकर - सुश्रुत ) मूर्च्छित हो जाता है । रोगी का मुख, मुख का भाग, नेत्र और अंग सफ़ेद हो जाते हैं, शरीर शीतल हो जाता है, रोमहर्ष होता और देह में भारीपन होजाता है । श्लैष्मिक मृगी का रोगी श्रन्यान्य मुगी वालों की अपेक्षा देर में चैतन्य होता है । मा नि० । मुख से लार का अधिक गिरना और नख का श्वेत हो जाना वाग्भट्ट ने अधिक लिखे हैं । वा० उ० ७ अ० । त्रिदोषज वा सान्निपातिक अपस्मार और अपस्मार की श्रसाध्यताजिसमें तीनों दोषों के लक्षण मिलें उसे त्रिदोज अपस्मार कहते हैं । यह तथा क्षीण पुरुष का पुराना अपस्मार भी असाध्य है । जो बहुत कांपे, ate हो और जिसकी भौंह चलायमान हो और नेत्र टेढ़े हो जाएँ ऐसे अपस्मार रोगी असाध्य हैं। मा० नि० । पैतृक अपस्मार को कम लाभ हुआ करता है । अन्य प्रकार की वात व्याधियों की अपेक्षा मस्तिष्क विकार जन्य अपस्मार, चाहे वह चौपदंशिक हो या न हो, अधिकतर चिकित्स्य होता है । दन्तोद्भजन्य या श्रान्त्रविकारजन्य शैशव काल से प्रारम्भ होने वाला अपस्मार और जिसे बहुत काल हो गए हों, लगभग श्रसाध्य होते हैं । रोग विनिश्वय अपस्मारके लक्षण निम्न लिखित कतिपय रोगों के लक्षण के बहुत कुछ समान होते हैं । अस्तु, इसके निदान करने में उनका विचार कर लेना अत्यावश्यक है: Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १ ) अपस्मार तथा शिरोभ्रमणअपस्मार रोगी अकस्मात् पृथ्वीपर गिर पड़ता है और उसके हस्तपाद प्रक्षेपग्रस्त हो जाते हैं एवं उसके मुख से कफ जारी होता है। इसके विपरीत शिरोघूर्णन में यद्यपि रोगी चक्कर खाकर गिर पड़ता है तो भी न उसके हस्तपाद आक्षेपप्रस्त होते हैं और न तो मुख में भाग ही श्राता है। अपस्मार ( २ ) अपस्मार और योषापस्मारदेखो - योषा पस्मार । (३) अपस्मार और प्रक्षेपक - देखो—आक्षेपक । स्वास्थ्य संरक्षण रोगारम्भ से पूर्व जिस स्थान पर सुरसुराहट का बोध हो उससे ऊपर एक रूमाल या पटका कसकर बाँधना और वेग से पूर्व उन क्रिया का दोहराना या उक्र स्थल पर चुटकी लेना, सर्दी, गर्मी अथवा बिजली लगाना या ब्लिस्टर लंगाना ( फोस्का उत्पन्न करना ) या उस स्थल की नाही का छेदन करना, प्रायः लाभदायक सिद्ध होता है । दोनों हाथों को उपया जल में रखना मन्या पर बर्फ़ लगाना, ५-१० मिनट तक उछलना कूदना या जोर से पढ़ना, वस्तिदान, वमन कराना या विरेचन देना, २० ग्रेन कोरल एक घाउंस पानी में मिलाकर पिलाना या ग्रेन मॉर्फिया ( श्रहि फेन सत्व ) और ग्रेन ऐट्रोपीन ( धन्तूरीन ) का स्वगन्तरीय अन्तः क्षेप करना, श्रादि में मूर्च्छा न होने पर अवयवों को बलपूर्वक खींचना और शिर विपरीत दिशा की ओर घुमाना, श्वासावरोध में ईथर, कोलोफॉर्म या नाइट्रेट ऑफ इमाइल सुँघाना इत्यादि उपाय रोग प्रतिषेधक रूप से उपयोगी सिद्ध हुए हैं। For Private and Personal Use Only रोगी के शिर को तीव्र गतिसे सुरक्षित रखें । कठिन परिश्रम, अधिक अध्ययन, अति मैथुन श्रादि से तथा मद्यपान एवं अधिक सर्दी गर्मी से परहेज करना चाहिए | गतिशील एवं घूमती हुई
SR No.020089
Book TitleAyurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size29 MB
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