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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपगमनम् ३७३ अपची अपगमनम् apa.gamanam) --सं० अपगम apagama हि.पु (१) वियोग, अलग होना । (२) दूर होना, भागना । ( Diverging ). अपगामितन्तु: apagami-tantuh--सं. चेष्टा बहा नाड़ी ( Efferent Fibre )। अपघन: apaghanah.-सं०प०ङ्ग, शरीरा वयव । ( All organ) श्रम | अपघातः apaghā tah--सं० पु० अस्वाभाविक मरण । हत्या, बध, मारना, हिंसा । अपघातक apaghataka). अपघाती apaghati -हिं० वि० [सं०] घातक, विनाशक, विनाश करने वाला। अपगा apaga--सं० वि० अन्यत्र जाने वाला । अथर्व । सू० ३०।२ । का०२। अपंग apanga--हिं० वि० [सं० अपांग = हीनांग] (1) अंगहीन, न्यूनांग । (२)लँगड़ा, लूला। अ (ओ) पङ्ग ao-pang-बं० अपामार्ग, चिरचिरा । ( Achyranthes Aspera, Linn.) अपच apacha- हिं० संज्ञा पु० [सं० ] न पचनेका रोग । अजीर्ण । बदहज़मी । ( Dysp epsia) अपचय apachaya-हिं० संज्ञा पुं० [सं०] टोटा, घाटा, क्षति, हानि । ( Loss, de trim ent)। (२) व्यय, कमी, नाश । अपचायितः apachāyitah-सं० पु. रोग, | व्याधि ( Disease) । अपवारः apachars h-सं० पु. ) अपचार apachara-हिं० पु. । (1) अजीर्ण ( Dyspepsia. ) (२) दोष, भूल ! (३) कुपथ्य । स्वास्थ्य नाशक व्यवहार । (४) कुव्यवहार ( An error ). अपचिताम् apachitām-सं0 क्लो० अप बुरे माद्दे के संचय से उत्पन्न । अथर्व० । सू० २५ । । १ का०६। अपची apachi-स० स्त्री० ( a kind of Serofula ) गण्डमाला नाम के कंठ रोग का एक भेद । कंठमाला की वह अवस्था जब गाँ पुरानी होकर पक जाती हैं और जगह जगह पर फोड़े निकलते और बहने लगते है। इसके लक्षण-घोड़ी की अस्थि, काँख, नेत्र के कोये, भुजा की संधि, कनपुटी और गला इन स्थानों में मेद और कफ (दूपित हो) स्थिर, गोल, चौड़ी, फैली, चिकनो, अल्प पीड़ा वाली ग्रंथि उत्पन्न करते हैं । श्रामले की गुठली जैसी गाँड करके तथा मछली के अण्डों के जाल जैसी त्वचाके वर्ण की अन्य गाँठों करके उपचीय. मान (संचित ) होती है इससे चय ( संचय) की उत्कषता से इसे अपची कहते हैं। __ यह अपची रोग खाज युक्त होता है, और अल्प पीड़ा होती है । इनमें से कोई तो फूटकर बहने लग जाते हैं और कोई स्वयं नाश हो जाते हैं, यह रोग मेद और कक से होता है। यदि यह कई वर्षों का हो जाए तो नहीं जाता। सु० नि. ११ अ० । अथ । सू०८३। ३। का०६। चिकित्साइस रोग में वमन विरेचन के द्वारा ऊपर और नीचे के अंगो का शोधन करके दन्ती, द्रदन्ती, निशोथ, कोसातकी ( कड़वी तरोई ) और देवदाली इन सब द्रव्यों के साथ सिद्ध किया हुश्रा घृत पान करना चाहिए । कफ मेद नाशक धूप, गर ड्प और नस्य का प्रयोग हितकारी है। नस (शिरा ) में नस्तर लगाकर रुधिर निकालें और गोमूत्र में रसौत मिलाकर पान कराएँ । अपची नाशक तेल (१) कलिहारी की जड़ का कल्क १ मा०, तेल ४ मा०, निगुरडी का स्वरस ४ भाग । इन सबको विधिवत् पकाएँ। नस्य द्वारा इसका सेवन करने से अपची रोग छूट जाता है । (२) वच, हड़, लाख, कुटकी, चन्दन इनके कल्क के साथ सिद्ध किया हुआ तेल पान करने से अपची निर्मूल होती है। (३) गौ, मेंढ़ा और घोड़े के खुर जलाकर राख करलें। इसे कड़वे तैल में मिलाकर अपची पर लेप करें। For Private and Personal Use Only
SR No.020089
Book TitleAyurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size29 MB
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