SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 393
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org न्त्रकणिका ३५१ उदरशूल के समान लिखी है । उदाहरणार्थ - विरेचन का प्रयोग और वस्तिदान या पेट पर शृङ्गी ( सींघिया ) लगाना श्रादि । परंतु जैसा कि वर्णन हुआ इस रोग में विरेचन देना अत्यंत हानिकारक है । इसलिए प्राक्कथित डॉक्टरी चिकित्सा की ही शरण लेनी चाहिए । पथ्य - रोगी को थोड़ा, स्निग्ध एवं उष्ण और पतला श्राहार दें । दूध में सोडावाटर मिला कर या दूध में अंडे फेंटकर या पतला सागू, अरारुट, यखनी ( मांसरस ) अथवा शोरबा प्रभूति थोड़ी थोड़ी मात्रा में तीन-तीन चार-चार घंटे बाद दें। यदि इतने पर भोन पचे तो पोषक वस्ति द्वारा रोगी का पोषण करें । अन्त्रकणिका antra-kaniká सं० स्त्री० गेंदा, पद्मचारिणी । (Tagetes Erecta ). श्रन्त्रकूजः antrakūjah - सं० पुरं वायुरोग विशेष | नाड़ी शब्द | ( Rumble ) सु० नि० १ श्र० १६ श्लो० । अन्त्रक्रूजनम् antra-kūjanam - सं० क्ली० (Rumble ) श्रांन्रध्वनि, श्राँतोंका शब्द, पेट में गुड़ गुड़ ( गड़गड़ ) आदि शब्द होना, श्राँतो की गुड़गुड़ाहट, अंतड़ियों की कुड़कुड़ाहट । antrachchhadá-kalá - हिं० संज्ञा स्त्री० ( Omentum ) - श्रश्छ दाकला । अन्त्रच्छदा कला श्रन्त्रताम्रा antra-tamrá सं० त्रो० गेंदा, पद्मचारिणी । ( Tagetes Erecta ). अत्रधारक कला antra-dharaka-kala- हिं० संज्ञा स्त्री० उदरच्छदा कला का वह भाग जो प्रांत को पृष्ठवंश के साथ बाँधता हैं । मेसेयटरी Mesentery- इं० । मासारीका - अ० । देखो - मासारीका | श्रन्त्र परिशिष्ट antra-prishishta-सं० हिं० पु० उपांत्र (Appendix ), बृहत् श्रंत्र के श्रारं भिक थैली जैसे भाग ( त्रपुट ) में दो तीन इञ्ज लम्बी एक पतली नली लगी रहती है, उस नली को उपांत्र या परिशिष्ट कहते हैं । उपांत्र का क्या विशेष काम है यह अभी किसी को ठीक तौर से मालूम नहीं । सब मनुष्यों में इसकी लम्बाई एक ही जैसी नहीं होती; किसी में यह इसे अधिक लम्बी नहीं होती किसी में इञ्च लम्बी भी होती है । इस नली का कभी कभी प्रदाह हो जाता है; और फोड़ा भी बन जाता है तब इसको काटकर निकाल देनेकी श्रावश्यकता होती है । देखो - उपांत्र । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रन्त्रपात्रम् antra-pacham i० क्लो० स्थावर विषांतर्गत वक् (छाल) और सार तथा निर्यास ( गोंद ) विष विशेष । सु० कल्प० २ श्र० लो० ७/ अन्त्रपुच्छ antra-puchchha - हिं० संज्ञा पुं० ( Appendix ) अन्त्र परिशिष्ट । अन्त्रपुट antra-puta - हिं० संज्ञा पु ं० सीकम् Caecum -इंο| ( मिश्राश्र ) श्र श्र्वर - अ० । रोहे चहारम्, रोदहे काज, कानी आँत उ० । चतुर्थ श्राँ, यह वृहद् यंत्र में की वह त है जो अधरक्षुद्रांत्र के बाद थैली की शकल में स्थित होती है । श्रीतों के विरुद्ध दो मार्गों के स्थान में इसमें केवल एक ही मार्ग होता है । इसीलिए अरबी में इसको अबर अर्थात् एक चक्षु या कानी श्रांत कहते हैं । अन्वृद्धि में प्रायः यही त अंडकोषो में उतर आती है; क्योंकि अन्य श्रतों के समान यह बंधक सूत्रों द्वारा बँधी नहीं होती । अन्त्ररुत्सेच नापः antra-rutsechauápah -सं० पु० सँड्राधावरोधक, पचननिवारक | (Antiseptic. ) श्रन्त्रवचा antravachá सं० हिं० स्त्री० चोबचीनी ( Smilax glabra, Roxb. ) लिका antra-valliká-सं० स्त्री० महिषवल्ली । रा० नि० ० ६ । श्रन्त्रवल्ली antravalli - सं० स्त्री० सोमवल्ली लता । वै० श० । श्रन्त्रविद्रधि antravidradhi- सं० हिं० स्त्री० उपांत्र प्रदाह, ( Appendicitis ) For Private and Personal Use Only
SR No.020089
Book TitleAyurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy