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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चाहिए । अनुवासनोपयोग ३३२ भनष्णम् ६ पत्ता, मध्यम बल वाले को ३ पत्र, और निबंत | अनुवासनापवर्ग: anuvasanopa vargah मनध्य का वस्ति देने के लिग ॥ पल नेह लेना -सं० पु. षड़, विशदशक-नामकपायवर्ग । वह दस ओषधियां जो अनवायन के लिए अनुवासन दम्ति का एक भेद मात्रावस्ति भी । उपयोगी हैं । यथा-( १ ) राम्बा, (२) है, इसमें १ पन मे २ पल तक स्नेह लिया देवदार. : ३ ) बेल, ( ४ ) मैनफन, (५ ) जाता है। सौंफ, (६) श्वेन पुनर्नवा, ( ७ ) लाल पुन. अनवासन व स्त रूक्ष श्रार नात रोगी के लिए नवा, ( ८ ) अरनी, (६) गोखरू और (10) हितकारक है। परन्तु रोगी का जठराग्नि तोब मोनापाठा । १० सू०४०। हो, नभी यह वस्ति देनी चाहिए । मन्दाग्नि, वाले | मन वालाख य: nuvisakhyali-मं० पु. कुष्ठरोगी, प्रमेहो, उदर रोगी और स्थूल शरीर - अनुवासन । वै० निघ० । वाले पुरुष को स्नेहवन कदापि न देनो चा. अनव जी vrijou-सं० पु० फेफड़े, प्राशि, हिए। फुफ्फुप दम् । चम्यो-सं०। प्रश० ।मु०६। स्नेह वात वसन्त ऋतु में मायंकाल में और श्री, वां तथा शरद ऋतु में रात में देनी चा animvelani-सं० त्रा० ममवेदना, हिए । पहिलो रोगी को विरंचन दें, फिर ६ दिन । महानुभूति । (Sympathy ). बाद पूर्ववत् शनि पाने पर स्नेह वस्ति देनी चा अन वेल्लिनम् anuvellitaim-सं० क्लो० शाखा हिए। जिस रोज स्ने, वस्ति देनी हो, उस दिन प्रण बन्धन भेद । सु० म० १८ अ०। रोगी के शरीर में नैन मर्दन करके पानी की भाप अनुशयanushasa-ह. संज्ञा पु० पश्चानाप, में पसीना देना चाहिए। और चावलों को पनली अनुताप, द्वेप। पेया श्रादि शास्त्रोक्र भाजन कराके जरा देर टहलना चाहिए, इसके बाद यदि अावश्यकता हो मनशा anushayi-मं० श्री. क्षुद्ररोगान्तर्गन तो मन मूत्रादि त्याग करके यथा विधि वस्ति पादरो। विशेष । देनी चाहिए। उम रोज़ रोगी को अधिक स्निग्ध लक्षण-जो फोड़ा गहरा हा, प्रारम्भ में थोड़ा भोजन देना हानिकारक है। मा दीग्वे, ऊपरमे त्वचा के रंग ही का हो ( भीतर वस्त लेने के समय रोगी को छींकना,, जंभाई। चक्करहार हो) और भीतर होमे पकता पाए उसे लेना. खांसना प्रादि कार्य न करने चाहिए । वैद्य पैरका "अनुशी' कहते हैं। इसको कफ से ___ म्नेह वस्ति लेने के बाद रोगी को हाथ पैर उस्पन जानना चाहिए। "कफादन्तः प्रपाकीता मीधे फैलाकर लेट रहना चाहिए। यदि स्नेह विद्यादनुशयी भिषक' । सु० सं० १० १३ । वम्ति का स्नेह मल युत्र होकर २४ घंटे के अन्दर चि-श्लेष्म विद्रधिके समान इसका उपचार म्वमेव बाहर न निकले, ना रोगी को तीक्ष्ण करना चाहिए । भा०पाद० रो०चि०। निमहगा वस्ति, तीक्ष्ण फलवति ( शाफ्रा),नीक्षण जनाब गोर नोचा नम्य देनी चाहिए। अनुशस्त्रम् anushastram सं० की. स्वक मार, स्फटिक, काच, जलोका, अग्नि, सार नया वस्ति देने के बाद यदि समस्त स्नेह बाहर नख श्रादि रूप शस्त्र । यह शिशु एवं भीरु प्रभृति या गया हो और रोगी की जटगग्नि तीव्र हो के लिए होता है । सु० सू० ८ ० । तो उसे सायंकाल में पुराने चावल का आहार देना चाहिए। अमष्ठान शरीर anushthana-sharira ___हिं० संज्ञा पु. लिंगदेह, प्रायदेह, पुरुषचिन्ह । श्रनवासनोपयोग univasanopayogo-सं० ० अनुवासनोपग वर्ग। मनुष्णम् anushiam-सं. क्ली. उत्पन, For Private and Personal Use Only
SR No.020089
Book TitleAyurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size29 MB
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