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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अतिसार २४६ अतिसार ( जल में डूब जाने वाला), दुर्गन्धि युक्र, विबद्ध, निरन्तर वेदना युक्र, प्रवाहिका से युक्र थोड़ा थंडा | दस्त होता है। इसमें रोगी को निद्रा, आलस्य, अन्न में अरुचि, रोमहर्ष और उलश होता है। वस्ति, गुदा, और उदर में भारीपन होता और दस्त होने के पीछे भी ऐसा मालूम होता रहता है कि दस्त नहीं हुआ है। वा०नि० = श्र०। (४) त्रिदोषज वा सानिपातिकातिसार शूकर की चरबी के समान व मांस के धोए पानी के सदृश तथा वातादि तीनों दोषोंके लक्षण जिसमें हो अर्थात् जो दोपत्रय से उत्पन्न हो उसे साग्निपातिकातिसार कहते हैं। यह कष्टसाध्य होता है । मा०नि० | वा. नि० = १०। (५) शोकातिसार के लक्षण जो प्राणी पुत्र, स्त्री, धन, बांधवादि के नाश होने से अति शोक युक्र होकर अल्प भोजन करते हैं, उनकी वाप्पोप्मा नेत्र, नासिका, कण्ठ श्रादिका पानी वायुसे को में प्राप्त हो अग्नि को मन्द कर रुधिर को दूषित कर देती है जिससे धुंघची के समान लाल रुधिर गुदाके मार्ग होकर विष्ठा मिला हुआ या विष्ठा रहित, निर्गन्ध वा गन्धयुक्र निकलता है। शोक जनित अतिसार प्रायः अति कठिन होता है। कारण यह शोकशांति हुए विना केवल औषधों से शांत नहीं होता, इस लिए इसे कष्टसाध्य मानागया है । मा० नि० । नोट-एक भयज अतिसार भी होता है जो भय द्वारा चित्त के क्षोभित होने पर पित्त से संयुक्र वायु मल को पतला कर देता है, तदनन्तर वात पित्त के लक्षणों से युक्र परन, पतला, प्लवतायुक जल्दी जल्दी मल निकलता है। इसमें प्रायः शोकातिसार के लक्षण घटित होते हैं। वा०नि०-०। (६) प्रामातिसार जब अन्ना के न पचने के कारण प्रकुपित हुए दोष (वात, पित्त और कफ) अपने मार्ग को छोड़कर कोड, रसादि धातु तथा मल को दूपित कर बारबार गुदा मार्ग से अनेक प्रकार के मल बाहर निकालते हैं, तब उसको आमातिसार कहते हैं । इससे रोगी के पेट में अत्यन्त पीड़ा होती है। (७) रक्तातिसार पित्तातीसार रोगी यदि अत्यन्त पित्तकारक द्रव्यों का भोजन करे तो उसको निश्चय रूप से रकातीसर रोग हो । रातिसार के वातजादि विशेष लक्षण उपयुक्र अतीसार के लक्षण के समान होते हैं। अतीसार रोग में अंतड़ी श्रादि में घाव होने से भी मल के साथ रक्त गिरता है। रोग विनिश्चय कुछ व्याधियाँ ऐसी हैं जो अतीसार से बहुत समानता रखती हैं। अतएव इसके ठीक निश्चीकरण में बहुधा भ्रम हो जाया करता है। वे निम्न हैं १-विशूचिका वा वैशूचिकातिसार, २-ग्रहणी, ३-प्रवाहिका और ४-मलावरोध जन्य ग्रामाशयस्थ श्लैष्मिक कलाओं का क्षोभ । यहाँ पर अतीसार के साथ इनकी तुलनात्मक व्याख्या कर दी जाती है जिससे अतीसार एवं उक व्याधियोंके ठीक निदान करने में सुविधा रहे । (१) अतीसार के प्रारम्भ में मल संयुक्त किन्तु पश्चात् को मल संयुक्र एवं पतले दस्त पाते हैं और उनका रंग प्रारम्भ से अंत तक पीला अथवा दोषानुसार विविध वर्ण मय होता है। परन्तु विशूचिका में मल संयुक्त न रहकर केवल सड़े कोहड़े के जल की भाँति पतले दस्त पाते हैं। अतिसार अपने उत्पादक विशेष कारणों से उत्पन्न होता है। पर विशूचिका में स्पष्टतया कोई विशेष कारण लक्षित नहीं होता | इसमें वमन और पेशाब बन्द हो जाते हैं और रोगी शीघ्र असीम निर्बलता का अनुभव करता है। अतीसार में प्रायः ऐसा नहीं होता। मल में पित्त का पाया जाना सदा अतीसार का सूचक है। विशूचिका में वमन बहुत पाते हैं और वे एक वर्ण रहित द्व होते हैं । अतीसार में वमन बहुत कम आते हैं और जब कभी पाते भी हैं तो उनमें पित्त अथवा अजीर्ण श्राहार को कुछ अंश विद्यमान रहता है। For Private and Personal Use Only
SR No.020089
Book TitleAyurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size29 MB
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