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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनसी २३५ बहुशः अन्य वस्ति, वृक तथा मूत्रप्रणाली सम्बन्धी विकारों में मूत्र को प्रदाहक अनुभूति के निवारणार्थ अलसी के बीज का श्रान्तरिक प्रयोग अत्यन्त उपयोगी होता है । ( मेटिरिया मेडिका अॉफ़ मैडरास ) पार० एन० खोरो-अलसी स्निग्धतासम्पादक, कफनिःसारक और मूत्रकारक है। अधिक मात्रा में मृदुरेचक है। अल्प मात्रामें सेवन करने से वृक्कद्वय अर्थात् मूत्रोत्पादक अवयव की क्रिया वृद्धि होती है। पिच्छिल वा स्नेहान्वित रूप से अलसी को कफ कास में प्रयुक्त करते हैं। स्निग्ध एवं मूत्रल होने के कारण यह मूत्रकृच्छ, अश्मरी, शर्करा एवम् शूलरोग में हितकर है। नोट-पुल्टिस बहुत मोटी नहीं होनी चाहिए और लगाते समय उसके निम्न धरातल पर किञ्चित् तैल प्रभति चुपड़ देना चाहिए जिसमें वह शरीर से चिपक न जाय । __अलसी की पुल्टिस इस प्रकार बनाई जाती है-४ भाग कटी हुई अलसी को १० भाग खौलते हुए पानी में धीरे धीरे डालकर मिलाते जाएँ। परन्तु, जिस बर्तन में पुल्टिस बनानी हो उसको पहले से गरम कर लेना चाहिए और पुल्टिस को श्राग के सामने तैयार करना चाहिए। अलसी को खली ( Liusdel meal ) से भी पुल्टिस बनाई जाती है । अलसी के बीज में एक प्रकार का लाबदार सत्व होता है जो उबलते हुए पानी में प्राजाता है। जव प्रामाशय-प्रान्त्रीय श्लैष्मिक कलाओं से इसका सम्बन्ध होता है, तब यह शांतिप्रद स्निग्धताजनक प्रभाव करता है और क्षोभक स्रावों से उनकी रक्षा करता है। इसमें प्रख्यात कण्ठ्य अर्थात् श्लेष्मानिस्सारक गुण है जो सम्भवतः श्रामाशय की ओर जाते समय कण्ठ पर प्रभाव करने पर पूर्णतः आधारित है । अधिक मात्रा में इसका फांट ( Infusion) वृक्क को मन्दोत्तेजन देकर मूत्रकारक प्रभाव करता है। अतएव वस्तिप्रदाही प्रायः इससे लाभ अनुभव करता है। फांट वा अतसी की चाय-(Infusion or linseed tea)-१५० ग्रेन अलसी और ६० मेन मुलेठी, इनके चूर्ण को १० फ्लुइड ग्राउंस खौलते हुए पानी में दो घंटे भिगोकर शीतल होने पर छान लें। अलसी के तेल के धूम ग्रहण करने से शिरः स्थित श्लेष्मा तथा योषापस्मार (Hysteria) में लाभ होता है। अलसी के क्वाथ का उसमें तैल की विद्यमानता के कारण, अनुवासनवस्ति रूप से लाभदायक उपयोग किया जा सकता है। इसका तेल मृदुरेचक है; अतएव अर्श रोगी गाढ़ विटकता की दशा में इसका उपयोग होता (मेटोरिया मेडिका श्रीफ इंडिया २ खं- पृ० १५) . पूयमेह तथा जनन-मूत्रावयवस्थ चोभ में इसके बीज का अान्तरिक प्रयोग होता है। पुष्प हृदय बलदायक माने जाते हैं । (इमर्सन) । यह भारतीय तथा ब्रिटिस फार्माकोपिया में श्राफ़िशल है । उत्कारिका अर्थात् पुल्टिस रूप से इसका औषधीय उपयोग होता है । (९० मे. प्लां०-कर्नल बो० डी० वसुकृत) १ प्राउंस पिसे हुए अलसी के बीज को रात्रि भर शीतल जल में भिगो रक्खें । प्रातः काल ही इसे हिला कर ठंडा ही अथवा गरम करके और नीबू का रस मिलाकर प्रयोग करें। यक्ष्मा रोगी के लिए यह एक उत्तम पेया है। इस प्रकार घोला हुमा ताज़ा तैन अत्यन्त रोग मोहीदीन शरीफ-अलसी के बीज स्निग्धतासम्पादक ( Demulcent ), मृदुताकारक ( Emollient), मूत्रल और तर्पक (वृंहण वा पोषक ) हैं। मूत्ररोध वा कष्टमूत्र (Dysuria), मूत्रकृच्छ,, वस्तिप्रदाह और वृकप्रदाह में एवं | For Private and Personal Use Only
SR No.020089
Book TitleAyurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size29 MB
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