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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir असा २०७ अडूसा सिंहपत्री, मगेन्द्राणी और सिंहानन ये अड़से के | ( Brackts) से ढका होता है । पुष्प संस्कृत नाम अन्य ग्रन्थों में पाए जाते हैं.) सम्मुखवत्ती, बड़े, श्वेत रंग के होते हैं जिनके बाकस, श्रारूसा, बासक, छोटावासक, वासन्ती | भीतरी भाग पर रवाभायुक्र लोहित वर्ण के धब्बे फुलेर गाछ--य० । हशीशतुस्सुआल-अ० । बाँसह, होते हैं, पुष्प के दो श्रोत सिंह-मुखाकृति के होते बॉसा, हवाजह --फा० । ऐढाटोडा वैसिका हैं जिनकी भीतरी पृष्ठों पर बैंगनी रंगको धारियाँ (Adhatoda vasica, Nces.), अडे- पड़ी होती हैं; बन्धनियाँ तीन, सम्मुखवती और नैन्थेरा वैसिका (Adenanthera vas- एक पुष्पीय, तीनों में से वाह्य बन्धनी ( Braica ), जरटीशिया ऐढाटोडा ( Justicia. ckt बड़ी, अण्डाकार, अस्पष्टतया पञ्चशिरायुक adhatod?, Roxb; Linn.), श्रोरोकीलम और भीतरी दो अत्यन्त छोटी होती हैं। ये सब इण्डिकम् ( Orocylum indicum .) स्थायी होती हैं। पुष्प-वाह-कोष (Calyx) -ले० । ऐढाटोडा (Adhatoda ), मलावार पाँच समान भागों में विभाजित होता है; पुष्पनट ट्री ( Malabar nut tree)-इं० । श्राभ्यन्तर-कोष ( Corolla) विस्तीर्ण प्राडाटोडई, अधडोडे-ता० । अडसरम्, अडम्पाकु, प्रोष्ठीय, लवुनालिकेय, विशाल प्रैव, ऊर्ध्व श्रोष्ठ नौकाकार, जिसका मध्य भाग परिखा युक्त होता पेद्दामानु, अडसरा, अडसर-ते, ते० । पाटलोटकम्-मल० | प्राडसोगे-सप्पु, पाडूसाल, श्राडू. है जिसमें रति केशर स्थान पाता है, निम्न प्रोप्ड सोगे-कना० । शोणा, शोडीलमर-करना० । चौड़ा, जिसमें तीन भाग होते है। पुरुष-केशर श्राडाटोड, पावट्ट-सि । मेस न--बिक--बर्मी। तन्तु लम्बा और ऊर्ध्व पोष्ठीय खात के सहारे रहता है और ये संख्या में दो होते हैं। बसूटी, तोरबंजा, वाशङ्ग-अरूप, भिक्कर-हिं० । प्रयोगांश-पञ्चांग, क्षार । प्रयोगाभिवायअडलसा-मह० । अडुलसो, बाँस, अडूरसा औषध, रङ्ग, खाद्य । (-सो), अरडूसी( शी)-गु० । बाइकण्टर-- अफगा-। श्राडसोगे-का० । भीकड़--पं० । रासायनिक-सङ्गठन-एक सुगन्धित उदनअकेन्थेसीई (पाटरुष) वर्ग शील सत्व, वसा, राल ( Resin), एक (A.C. Acunthureus.) तिक्षारीय सस्व जिसे वासीसीन (Vasicine) उत्पत्ति स्थान-भारतवर्ष के अधिकतर जिसे संस्कृतमें बासीन वा वासकीन कह सकते हैं. भाग, पंजाब और प्रासाम से लेकर लङ्का एवं एक सेन्द्रियक अम्ल (वासाम्ल) ऐढाटोडिक एसिड सिङ्गापूर पर्यन्त | राजपूताना, शाहजहाँपूर, (Adhatodic Acid), शर्करा, निर्यास, रनबीरसिंह (ज, कशमीर) प्रभृति स्थान | रंजक पदार्थ, और लवण । वासीन का अधिक वानस्पतिक विवरण-यह क्षुप जाति की परिमाण अडूसे की मूल त्वचा और पत्र से प्राप्त वनस्पति है; परन्तु किसी किसी स्थान में इसके होता है। वासीन के स्वच्छ श्वेत रवे होते हैं बहुत बड़े रहे वृत्त पाए जाते हैं। शरद ऋतु में जो अलकुहॉल ( मद्यसार) में सरलतापूर्वक इसमें पुष्प पाते हैं। प्रकाण्ड सीधा; त्वचा सम, घुल जाते हैं। ये जल में भी विलेय होते हैं। धूसर वीय; शाखाएँ अर्द्ध सरल, स्वचा प्रकांड इनकी प्रतिक्रिया क्षारीय होती है। खनिजाम्लों के सदृश किन्तु समतर; पत्र सम्मुखवर्ती, ५ के साथ यह स्फटिकवत् लवण बनाता है। से ६ इंच लम्बे और १॥ इंच चौड़े, नुकीले, अमोनिया भी किसी अंश में विद्यमान होती है। जिनके दोनों पृष्ठ चिकने होते हैं, पीटिश्रोल औषध- निर्माण-शीत कपाय (१० भाग ( Petiole ) अर्थात् पत्रवृन्त सूक्ष्म, नल में भाग); मात्रा-११ तो० से ५ तो०; पुष्प प्रधानाक्ष लम्बा, शाखा रहित, बालियाँ तरल सत्व; मात्रा-२ से १ रत्ती | पत्र स्वररू; बास कक्षीय और अकेली; पुष्पडंठल ७॥ मा० से १ तो० ३ मा० । टिचर(१० (पुष्पवृन्त) छोटा और बड़े बड़े बन्धनियों ।। में १), मात्रा-२ मा० से ४ मा० । संयुक्त क.थ, For Private and Personal Use Only
SR No.020089
Book TitleAyurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size29 MB
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