SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 232
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रजबार ११० अजबार प्राभ्यन्तरिक उपयोग होता है । इसकी जड़ का काथ (१० में १) १। तो० से ३॥ तो की मात्रा में अत्यधिक रजःस्राव के लिए लाभदायी खयाल किया जाता है, (रो०)। अञ्जनी की छाल का चूर्ण सुगन्धित द्रव्यों, यथा-अजवायन, ( काली मिर्च और जदवार प्रभृति के चूर्ण के साथ मिलाकर इसे कपड़े में बाँधकर मोच पाने अथवा कुचल जाने में इसका सेक करें अथवा इसे लेप के काम में लाएँ। (वि० आइमाक)। डक्टर पीटर के दर्णनानुसार अञ्जनी पत्र बेलगाँव ( दकन ) में सूजाक के लिए बहुत प्रसिद्ध है। इस हेतु इसको खरल में कुचलकर उबलते हुए जल में डाल इसका इन्फ्यूजन ( शीत कपाय ) तय्यार करना चाहिए । प्रजबार) anjabara-अ० किसी २ ग्रंथ में अजुबार अम्जुबार और अञ्जिबार भी पाया है। अङ्गबार होज़र, बंदक-फ़ा० । बु० म० । मिरोमती --सं० । ई० मे० मे०। मचूटी, इन्द्राणी, केसर, कुवर,निसोमली, बीजबन्द-हिं । मस्लून, बिलौरी अञ्जबार-६० । द्रोब-काश० । इन्द्रारू-सिंध । पॉलीगोनम् अविक्युलरी Polygonum Aviculare, पॉ० बिस्टोर्टा P. Bistotta Lin., पा० विविपरम P. viviparum-ले० । नॉटग्रास knot grass-इं० । फॉ० इं०। इं० मे० मे० । ई० मे० प्लां० । मेमो० । रिनोवी अोइसी Renonee oiseaux-फ्रां। पोलिगोनेशिई ( अखबार) वर्ग (V.O. Polygonaceae) उत्पत्ति स्थान-उत्तरी एशिया और यूरोप । वहीं से यह भारतवर्ष में लाया गया । फा० इं०३ भा० । पश्चिमी हिमालय, काश्मीर से कुमायूँ तक, रावलपिण्डी और डेकन | इं० मे० प्लां० । इतिहास-सर्व प्रथम यूनानी ग्रन्थों में अंजुबार का वर्णन किया गया है। अस्तु, दारूकरीदूस ( Dioscovides ) और लाइनो (Pliny) के ज़माने में यह रक्काघरोधक मदभेदनीय तथा मूत्रल प्रभाव हेतु उपयोग में श्राता था | जलनयुक्र प्रामाशयिक वेदना में इसके पत्र को स्थानीय रूप से प्रयोग में लाते थे और मूत्राशय एवं विसर्प संबन्धी व्यथा में इसका लेप करते थे। इसका रस तिजारी और चौथिया प्रभृति ज्वरों में, ज्वर चढ़ने से थोड़ी देर पहिले विशेषरूप से उपयोग में प्राता था। स्क्रियोनिअस (Scribonius ) का कथन है, कि चूँ कि यह प्रत्येक स्थान में पाया जाता है इस लिए इसको पालिगोनोस (Polygonos) कहते हैं । इब्नसीना तथा अन्य अरबी हकीम इसको असाउर्राई तथा बर बात नाम से पुकारते हैं । इनके विचार से अजुबार शीतल एवं रूह है तथा वर्णन क्रम में वे इसके उन्हीं गुणों का उल्लेख करते हैं जिसका वर्णन यूनानियों ने सर्व प्रथम अपने ग्रंथों में किया । फ़ारसी लेखक इसको हज़ार बन्दक कहते हैं । आयुर्वेदिक ग्रंथों में इसका कहीं भी वर्णन नहीं मिलता। हाँ! भारतवर्ष में हकीम लोग अबभी इसको उन्हीं रोगों में वर्तते हैं जिनका ज़िकर दीसकरीदूस ने किया है। वानस्पतिक विवरण-इसका वृक्ष प्रादमी के कद के समान होता है । मूल तन्तुमय, लम्बा अत्यन्त कठोर, कुछ कुछ कालीय; निम्न भाग शाखी एवं सिरा साधारण, श्यामाभायुक्र रक एवं विषम होती है । प्रकाण्ड अनेक, प्रत्येक दिशा में फैला हुआ,साधारणतः दण्डवत पड़ा हुआ,(नत) बहुशाखा युक्र, गोल, धारीदार अनेक प्रन्थियों पर पर्णसंयुक्र होता है। पत्र-एकांतरीय अर्थात् विषमवर्ती, डंल युक्र, मुश्किलसे एक इंच लम्बा, श्रण्डाकार या बछीके श्राकारका सम्पूर्ण (अखंड) अधिक कोणीय, एक नस से युक्र, किनारेके सिवा चिक , विभिन्न चौड़ाई वाला, पदार्थ अधिक चर्मोपम, पण कुछ कुछ धूसर अथवा नीला और डंठल की ओर गावदुमी होता है । पुष्प श्वेत गंभीर रन तथा हरित वर्ण से चित्रित होता है। बीज-त्रिकोणाकार चमकीले और काले रंग के होते हैं। For Private and Personal Use Only
SR No.020089
Book TitleAyurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy