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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजीर्णम् १६० अजीणम् पचे नहीं, अपितु जल जाय उसको अजीर्ण कहते हैं । भा० म० ख०१ भा० अ० अ० मा०।। प्रायः पेट में पित्त के बिगड़ने से यह रोग होता है जिससे भोजन नहीं पचता और वमन, दस्त और शूल अादि उपद्रव होते हैं। आयुर्वेद में इसके छः भेद बतलाए हैं: १-श्रामाजीर्ण जिसमें खाया हुआ अन्न कच्चा गिरे। २-विदग्याजाणे जिसमें अन्न जल जाता है । ३-विष्टब्याजोरी-जिसमें अन्न के गांटे वा कंडे धकर पेट में पीड़ा उत्पत करते हैं। - ४-रसशेषाजीर्ण जिसमें अन्न पतला पानी की तरह होकर गिरता है। ५-दिनपाकी अजीर्ण जिसमें खाया हुश्रा अन्न दिन भर पेट में बना रहता है और भूख नहीं लगती है। ६-प्रकृत्याजाणं वा सामान्याजीर्ण जो सदैव स्वाभाविक रहे। _डॉक्टरों में इसके दो भेद मानते हैं-(1) उग्र अजीर्ण (Acute dyspepsia) और (२) पुरातनाजीर्ण (Chronic dyspepsia). पुरातनाजीर्ण के पुनः तीन भेद होते हैं-(1) श्रामाशयविकार जन्य अजीर्ण (A tonic dyspepsia ), क्षोभमन्याजीर्ण ( Irritative dyspepsia) और वाताजीर्ण (Nervous dyspepsia). अजाण निदान । ईर्षा (पराए धनधान्यादिको देखकर जलना), डरना, क्रोध करना इन कारणों से व्याप्त तथा लोभ, शोक, दीनता इन कारणों से पीड़ित और दूसरों के शुभ कामों को बुरा समझने वाले मनुथ्यों का किया हुआ भोजन भली भाँति नहीं | पचता है । ये अजीर्ण के मानसिक कारण हैं। . शारीरिक कारण ये हैं अत्यन्त जल पीने से, विषम ( असमय वा न्यूनाधिक ) भोजन करने से, मल-मूत्रादि के वेग रोकने से, दिन में सोने से, रात्रि में जागने से, इन कारणों से भोजन के समय यदि प्रकृति अनुकूल, लघु तथा शीतल पदार्थ सेवन करें तो | भी अन भली प्रकार नहीं पचे उसको अजीर्ण कहते हैं। जो लोभी मनुष्य जिह्वा के वश होकर पशु के समान बेप्रमाण भोजन करते हैं उनको सब रोगों का कारण अजीण रोग शीघ्र उत्पन्न होता है। माधवः। अजीण के लक्षण (१) प्रामाजीर्ण-यह कफ के प्रकोप से होता है। इसमें देह का भारीपन, जी मचलाना, कपोल व नेत्रगोलक में सूजन, मी खट्टा जो ही रस खाया गया हो उसी की डकार आना प्रभृति लक्षण होते हैं। (२) विदग्धाजोण-यह पित्त के प्रकोप से होता है । इसमें भ्रांति, तृष्णा, बेहोशी, अनेक प्रकार की पित्तज पीड़ा, धुएँ के साथ खट्टी डकार पाए, पसीना पाए तथा दाह हो, ये लक्षण होते हैं। (३) विष्टब्धाजीर्ण-यह वायु के प्रकोप से होता है। इसमें रोगी को शूल, पेट फूलना, . नाना प्रकार की वातज पीड़ा, मल तथा अधो वायु का न निकल ना, पेट का जकड़ना, इन्द्रियों में मोह और शरीर में पीड़ा, ये सब लक्षण होते हैं। (४) रसशेष जीर्ण-इसमें अन्न में अरुचि हृदय में जड़ता और देह में भारीपन होता है । माधवः । वा०नि० १२ १०। नाट-दिनपाकी तथा प्रकृत्याजीण के लक्षण अजीण के भेदों के अन्तर्गत वर्णित हैं। अजीर्ण के उपद्रव अजीण रोगी के बेहोशी, प्रलाप, वमन, मुख से पानी का पाना, देह शिथिल होना, भ्रांति होना, ये सब उपद्रव होते हैं। अत्यन्त बढ़ा हुधा अजीण मनुष्य को मार भी डालता है। नोट - अग्नि मन्द होने ही से अजीण और ग्रहणी पैदा होती है अर्थात् अधिक समय तक अग्निमान्द्य और अजीर्ण रोग रहने से पीछे इसी की गणना ग्रहणी में होने लगती है। __उपरोक्त प्राम, विष्टब्ध तथा विदग्धाजीण से विसूची ( हैजा), अलसक और निलम्बिका ... For Private and Personal Use Only
SR No.020089
Book TitleAyurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size29 MB
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