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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अंजवाइन १३ अजवाइन प्राचीन आयुर्वेदीय ग्रंथकारों ने इसी प्रकार के | एक ओषधि का यवोनी तथा यवानिका नाम से वर्णन किया है, जिससे इसका विदेशी होना साफ सिद्ध होता है । उनके वर्णनानुसार यह अजमोदा | के भेदों में से एक है। वानस्पतिक विवरण-अजवायन क्षुप जाति की वनस्पति के बीज है। ये तुप लगभग चार फीट ऊँचे होते हैं। पत्ते छोटे छोटे हालों के पत्तोंके समान एवं कटीले होते हैं और इनकी डालियों पर छत्ते से आते हैं जिनपर सफेद फूल लगते हैं । जब वे छत्ते पक जाते हैं तब उनमें अजवाइन उत्पन्न होती है । उनको कूटने से छोटे छोटे दाने से निकलते हैं, इन्हीं को अजवाइन कहते हैं। अजवायन (फल) रूपाकृति' में अजमोदा समान तथा धूसर वर्ण की होती है, जिसका ऊपरी धरातल प्रबुदाकार पञ्च उभार युक्र होता है। इनकी मध्यस्थ नालियाँ श्याम धूसरित होती हैं, जिनमें एक तेल नलिका होती है। संधिस्थल में दो तैल नलिकाएँ होती हैं। गंध हाशा अर्थात् जंगली पुदीना के सदृश होती है। भारतीय कृषक प्रायः धनिए के साथ इसे खेतों में बोते हैं। बोने का समय अक्टूबर से नवम्बर तक (कातिक, अगहन) और काटने का समय फरी है। इसके लिए खेत खाददार होना चाहिए। नोट- श्रायुर्वेद में यमानी, बनयमानी, पारसीक तथा खोरासानी आदि नामों से अजवायन को चार प्रकार का बतलाया गया है । इनमें से प्रथन दो में कोई भेद नहीं (दूसरी केवल जंगली है ) और अंतिम की दो अजवायन खुरा. सानी ही के पर्याय हैं: किन्तु यह अजवायन से सर्वथा भिन्न वर्ग की प्रोपधियाँ हैं। इनका वर्णन यथास्थान किया जाएगा। प्रयोगांश-फल, पत्र । रासायनिक संगठन-स्टेनहाउस (१८५५) महाशय के मतानुसार अजवाइन के फल में एक प्रकार का ग्राहा सुगंधियुक्र उड़नशील तेल (५-६ प्रतिशत) होता है जिसका विशिष्ट गुरुत्व ०६६ है। परिश्रुत जल के ऊपरी धरातल पर एक प्रकार का स्फटिकवत् द्रव्य ( Ste: aroptin ) इकट्ठा होता है। उसे अजवाइन का फूल या सत कहते हैं। स्टॉक ( stock ) महाशय ने सर्वप्रथम इसका बयान किया तथा स्टेनहाउस (Stenhouse ) और हेन्स ( Haines) ने परीक्षा करके इसकी थाइमोल ( Thymol) से, जो जङ्गली पुदीना ( Thymus Vulgaris) से प्राप्त होता है, समानता दिखलाई। देखो-थाइमोल । इसमें क्युमीन (Cumene), टीन ( Terpene ) तथा श्राइसीन (Thy. mene) भी पाए जाते हैं। औषध-निर्माण-अजवायन गुटिका (शाङ्ग०), चूर्ण, काथ, अर्क ( अमूम का पानी) और तैल । अजवायन के गुणधर्म व प्रयोग। श्रायवेंदीय मत के अजसार अजवायन लेखन ( देहस्थ धातु तथा मलों को शोषण करने वाली), पाचक, रुचिकारक, तीक्ष्ण, गरम, चरपरी, हलकी, अग्नि को दीपन करने वाली, कड़वी और पित्तकारक है तथा वीर्य, शूल, वात, कफ, उदर, पानाह, गुल्म, प्लीहा तथा कृमि को नष्ट करने वाली है। (भा० पू०१ भा०) ___ इसके शाक के गुण-अजवायन का शाक श्राग्नेय, रुचिकारक, वात-कफ-नाशक, चरपरा, कड़वा, गरम, पित्तकारक, हलका तथा शूलकारक है। (भा० पू० शा०व०) अजवायन चरपरी, कड़वो और गरम है तथा वात की बवासीर, कफ, शूल, श्राध्मान, कृमि और वमन को दूर करने वाली तथा परन दीपन (ग० नि० २०६) अजवायन कोढ़ और शूल को नष्ट करने वाली है, हृदय को हितकारक, पित्तवद्धक तथा अग्निबद्धक है। अजवायन चरपरी, कड़वी, रुचिकारी, गरम, अग्निप्रदीपक, पाचक, पित्तजनक, तीक्ष्ण, हलकी हृदय को हितकारी, सारक और बीर्यजनक है तथा वाी की बवासीर, कफ, शूल, अफरा, वमन, कृमि, शुक्रदोष, उदररोग, प्रामाह, हृदय For Private and Personal Use Only
SR No.020089
Book TitleAyurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size29 MB
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