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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अजमोदा ही का एक भेद है। इसके सुप अजवाइन के ही समान होते हैं । इनकी शाखाओं पर बड़े बड़े छत्ते से लगते है; उनपर श्वेत रंग के पुष्प हैं और जब वे छते एक और फूट जाते हैं त उनमें से जो दाने उत्पन्न होते हैं वे छत्तों से अलग होते हैं, उनको अजमोद कहते हैं। करफ़्स या बड़ी अजमोदा जो फ़ारस से बम्बई में आती है, वह एक प्रति सूक्ष्म फल होता है । गोलाकार और चिकना होता है । स्वाद - प्रथम सौंफ के समान पुनः कथा | मंत्र-सौंफ के समान, किन्तु उससे निर्बल । यह १३१ प्रयोगांश- बीज तथा मूल । रासायनिक संगठन - (१) गंधक, (२) एक उड़नशील तैल, ( ३ ) अल्ब्युमीन, (४) लुद्यात्र तथा ( ५ ) लवण । इसमें से एक प्र कार का कपूर निकलता है जिसे एपिश्रोल ( Apiol ) कहते हैं । औषध - निर्माण - चूर्ण, काथ, परिश्रुत, औषधीय जल ( थर्क ) यादि । अजमोद के गुणधर्म तथा प्रयोग । आयुर्वेद की दृष्टि से - अजमोद शूलप्रशमन और दीपन हैं । (०) वातकफनाशक, प्ररुचिनाशक, दीपन, गुल्म शूलनाशक और ग्रामपाचक है । सु० । अजमोद, चरपरा, गरम, सूखा, कफवातनाशक और रुचिकारक हैं तथा शूल, अफरा, अरोऔर उदररोग का नाश करनेवाला है । ( रा० नि० ० ६ ) अजमोद चरपरा, सीक्ष्ण, अग्निदीपक, कफ, तथा यात को नष्ट करने वाला, गरम, दाहकारक हृदय को प्रिय, वीर्यवर्द्धक, बलकारक ( कहीं कहीं "मला" अर्थात् विधकारी पाउ है) और हलका है तथा नेत्ररोग, कफ ( कहीं कहीं कृमि पाठ है), वमन, हिचकी, तथा वस्तिशूल नष्ट करने वाला है । मद० ० २, भा० पू० १ भा० ६० व०, सि० यो० अग्निमांद्य चि० । अजमोद रुचिकारक, दीपन, चरपरा, रूखा, गरम, विदाही, हृदय को प्रिय, वीर्यवर्द्धक, बलकारक, हलका, कड़वा, मल स्तम्भक, ग्राही और Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजमोदा पाचन है तथा अफरा, शूल, कफ बात, श्रारोचक, उदर के रोग, कृमि, वमन, नेत्र रोग, वस्तिशूल, दन्तरोग, गुल्म और वीर्य के विकार को दूर करता है । (नि० ० ) अजमोदशर्क के गुण अजमोद का अर्क वात कफनाशक और वस्तिशोधक है । यूनान ग्रन्थकारों की दृष्टि से अजमोद के गुणधर्म व प्रयोग । स्वरूप- काला | स्वाद- तीखा और चरपरा । प्रकृति - १ कक्षा में उष्ण और २ कक्षा में रूक्ष हैं । हानिकर्ता - गर्भवती तथा दुग्ध पिलाने वाली जियों और उष्ण प्रकृति व सुगी के रोगियों को । दर्पनाशक - अनीसून और मस्तगी । प्रतिनिधि- खुरासानी अजवायन । मात्रा-६ मा० से मा० तक । गुण, कर्म व प्रयोग - समस्त श्लेमज एवं शीतजन्य रोगों के लिए विशेषकर लाभदायक है 1 यह तीक्ष्ण तथा कड़वा है, इसलिए उष्ण, मुक्त ( काटने छाँटने वाला ) और तीव्र रोधउद्घाटक हैं । यह श्राध्मान लयकर्ता, रोधउद्घाटक और स्वेदजनक है तथा श्लेष्मा एवं वायुजन्य वेदनाशामक हैं । मुखकी गंधको | न्त सुगन्धि युक्त बनाता है। क्योंकि यह मसूदों, तालु, कब्जे तथा श्रामाशय की दुर्गन्धि युक्र एवं सड़ी गली तूबतोंको लयकर्ता तथा काटता छाँटता है । अपस्मार के लिए हानिकारक हैं और पस्मार रोगियों के दोषों को कुपित करता है । क्योंकि आमाशय को गरम करता है और उसमें वाष्पोद्भूत करनेवाला उत्ताप उत्पन्न कर देता है; जिससे तीव्र धूम्रमय वाप थित होता है । जिस समय यह मस्तिष्क तक पहुँचता है उस समय घनीभूत होकर वायु बन जाता है । इसी से अपस्मार पैदा होता 1 इसके तिरिक्र यह शिर की ओर मलों को भी चढ़ाता है । किसी किसी के मतानुसार मल नलिकाओं को खोलने के कारण यह आमाशय, शिर तथा जरायु की ओर तीव्र मलीय रतुतों को शोषण करता है । इस हेतु श्रपस्मार को For Private and Personal Use Only
SR No.020089
Book TitleAyurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size29 MB
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