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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रद्धाल ६२ अदाल [किसी किसी के मत से दूसरी कक्षा में ] गरम तर मानते हैं। हानिकर्ता-श्लेष्मा अधिक उत्पन्न करता है। दर्पघ्न-काली मिर्च और शीतल व रूक्ष वस्तुएँ प्रतिनिधि-किसी किसी रोग में कुकरौंधा है। मात्रा-४ या ६ मा० तक । विशेष प्रभावविषघ्न व शोथलय कर्ता, हृदय को बलप्रद, करता, कफ और वायु के विकारों को हरण करता, उदर की पीड़ा को हरण कृमिघ्न, और इसकी जड़ के छाल का चूर्ण । मा० काली मिर्च के साथ बवासीर को बहुत गुण कारक है। __ इसके अत्यधिक उपयोग से श्रामाशय निर्वल होजाता है, और सिर में झनझनाहट के साथ मीठा दर्द शुरू हो जाया करता है । गुदा स्थान में जलन मालूम होती है । नेत्र पीले पड़ जाते हैं निद्रा कम पाती है। एवं मस्तिष्क कार्य करने की इच्छा अधिक बढ़ जाती है। ऐसी अवस्था होने पर शंखपुष्पी चूर्ण ४ मा० दुग्ध पावभर में उबालकर ठंडा करके स्वाद के अनुसार मिश्री मिलाकर पिलाने से तत्काल समस्त विकार नष्ट होते हैं। जड़ उष्ण और चरपरी होती है । फल ठंडा पौष्टिक शरीर को मोटा करने वाला होता है। यह श्राहार कार्य में श्राता है। किन्तु अधिक खाने से गरमी मालम होती है। अङ्कोल के विविध अंगों के अनेक उत्तम उपयोग:अकोल को जड़ तथा छाल-देशी चिकित्सा में इसकी जड़ की छाल रेचक तथा कृमिघ्न प्रभाव के लिए उपयोग में पाती है। वम्बई में संधिवात की पीड़ा को शमन करने के लिए इसके | पत्तियों का पुलटिस व्यवहार में प्राता है। (डाक्टर सखाराम अर्जुन) मि. मोहीदीन शरीफ़ के वर्णनानुसार उक्त श्रीषधि कुछ एक गुप्त योगों का, जो वीर्य रोग स्वचारोग तथा कुष्टरोग की चिकित्सा में अर्काट तथा वैलौर प्रभृति स्थानों में अत्यधिक प्रचार | पा चुके हैं, एक प्रधान अवयव है। और वह | स्वानुभव का वर्णन करते हुए कहते हैं कि मैंने | उक्त छाल को कुछ कुष्ट रोगियों को प्रयोग कराया और अनेक दशानों में मैंने इसे २॥ रत्ती की इतनी कम मात्रा में भी वामक प्रभाव युक्त पाया। अधिक मात्रा (अर्थात् २५ रत्ती) में उपयोग में लाने पर यह योग्य और वेज़रर ( अहानिकर ) वामक तथा थोड़ी मात्रा में उस्लेश कारक और ज्वरघ्न औषध सिद्ध हुआ। इससे भी न्यून मात्रा में यह भारतवर्ष की सर्वोत्तम परिवर्तक, बलप्रद औषधियों में से है। इसकी त्वचा अत्यन्त तित है. अतः त्वचा रोगों में इसकी प्रसिद्धि बिना श्राधार के नहीं । यदि इसको पर्याप्त काल तक लगातार उपयोग में लाया जाय तो मदार की अपेवा उन पर इसका प्रभाव अधिक होता है । वे पुनः वर्णन करते हैं कि यह इपिकेकाना ( Ipecacuanha) की एक उत्तम प्रति. निधि है और प्रवाहिका के अतिरिक्त उन समस्त रोगों में लाभदायक सिद्ध होता है, जिनमें कि इपिकेक्काना व्यवहृत है। ज्वरधन तथा स्वेद जनक होने के कारण ज्यर . नष्ट करने में यह उपयोगी पाया गया है। उपक्रश वारक, मूत्र जनक और ज्वरध्न प्रभाव हेतु इसकी जड़ की छाल की मात्रा ३ से ५ रत्ती तक और परिवर्तक रूप से १ से २॥ रत्ती तक है । यह कुष्ट एवं उपदंश में प्रयुद्ध होती है। देशी लोग इसे विशेषतः विषैले जानवरों के काटने में विषघ्न खयाल करते हैं। श्रीषधि-निर्माण-अङ्कोलचूर्ण-जड़ की छाल साए में सुखाकर चूण कर बारीक छान लें और बोतल में सुरक्षित रक्खें। मात्रा-वमनहेतु २५ रत्ती, (५० ग्रेन)। ( मो० श०) इसकी जड़ की छाल चावल के पानी में घोट कर धोड़ी से शहद के साथ अतिसार में बरती जाती है । प्रामातिसार और रक्रातिसार में मूल स्वचा का चूर्ण ५ रत्ती दिन में २-३ बार सेवन कराना चाहिए। यह नित्य ज्वरों में भी उपयोगी है। ज्वर की अवस्था में २॥से ५ रत्ती देने से स्वेद पाकर For Private and Personal Use Only
SR No.020089
Book TitleAyurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size29 MB
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