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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा को अपने चमत्कारों से बहुत कुछ दवा डाला। इसके बाद एलोपैथी का सितारा चमका । उन्होंने यूनानियों से भी अधिक गवेषणा की और आयुर्वेदीय चिकित्सा को बिलकुल ही दबाडाला । इस समय जब सज्ञ व द्या ने अपनी अवनति पर विचार करना प्रारम्भ किया तो उनको अपने रोगविज्ञान (निदान) पर ओर निघण्टु ( औषधि-विज्ञान ) पर नज़र डालनी पड़ी, कारण इनके बिना चिकित्सक एक पग भी आगे नहीं बढ़ा सकता । अस्तु तुलनात्मक विवेचन करने पर अांखें खुली और ज्ञात हुआ कि हमतो प्रथम ही अपना मार्ग रुद्र कर चुके हैं तब होश पाया कि हमें अपनी कमी कैसे पूर्ण करनी चाहिए। क्या २ कमी और क्या २ अनर्थ हमारे निघण्टु श्री में है दिग्दर्शनार्थ हम नीचे देते हैं । यथा "रास्नास्तुत्रिविधा प्रोक्ता मूलं पत्रं तृणं तथा" इस प्रकार रास्ना तीन तरह की बता कर ऐसा भ्रम में डाला गया है कि कभी भी यह जटिल समस्या तय न हो । इसी तरह कंकुष्ट, रसक श्रादि पर भी विवाद है। अब देखिए प्रायः नित्यप्रति कार्य में श्राने वाली वस्तुओं के विषय में। धान्यकं तु वरं स्निग्धमवृष्यं मूत्रले लघु । तिक्तं कटष्ण वीयं च दीपनं पाचनं स्मृतम् ॥ भाव० ॥ धनियाँ स्निग्ध, अवृष्य, मूत्रल, हलका, तिक, कटु, उष्णवीर्य वाला दीपन और पाचन है । परन्तु, धान्यकं मधुरं शीतं कषायं पित्त नाशनम् । राजनि० । राजनिघण्टकार धनिये को मीठा,शीतल,कषैला पित्तनाशक मानते हैं। भावप्रकाशकार धनिये को पित्तकारक विशेष मानते हैं और राजनिघण्टुकार ठंडा । अब क्या ठीक है ? वैच किस के मत को स्वीकार कर दे और कैसे सफलता प्राप्त करे ? जब तक यह रद निश्चय हम लोग बैठ कर नहीं कर लेते तब तक हम सफलता से संकड़ों कोस द्र हैं । एक विद्वान वध भी जिसने बड़ी खोज से रोग निश्चय किया हो उसमें दोष विवेचन करके उसकी अंशांश कल्पना भी कर लेने में वह सफल हो गया हो तो भी वह औषध निश्चय में या तो भ्रम में पड़ जायगा कि किसका मत माने । यदि उसने एक के मत को स्वीकार करके भी औषधि दे दी तो वह असफल हुआ और रोग बढ़ कर प्राण नाशक बन गया। इसमें किसका दोष है ? वैद्य का या वैद्यक साहित्य का । अभी तो श्राप यही कहेंगे कि वयक का तो ऐसी भारभूत साहित्य से ही क्या लाभ? मेरी तो धारणा होगई है कि जल्द से जल्द ऐसे साहित्यको नष्ट भ्रष्ट कर देने में ही भलाई है, वर्ना व द्यों को बहुत क्षति का सामना करना पड़ेगा। यूनानी वाले धनिये के विषय में लिखते हैं-धनियां फरहत लाती है, दिल व दिमाग़ को कुव्वत देती है, दिमाग़ पर प्रवरे चढ़ने को रोकती है, ख़फ़्कान व वसवास ( वहम ) को मुफीद, मेदे को कव्वत देती है, दस्तों को बन्द करती है, जरियान मनी को लाभ देती है, नींद लाती है, ताज़ी धनियां रद्दी माद्दे को पकाती है और सारा को तस्कीन करती है। इसकी कुल्ली मुंह के जोश, और गले के दर्द को नफ्रा करती है । अक्सर दिमाग़ी बीमारियो को ना करती है। मात्रा-६ मा0 से १ तोला तक । गैर समी अर्थात् विष नहीं है। कहिए यूनानियों को तस्वीससे क्या विशेष लाभ प्रापको नहीं हो सकता | इसी प्रकार एलोपैथी का वर्णन करके फिर अपना मत निश्चय कर दिया जाय तो क्या चिकित्सकों को सुलभता नहीं हो जायगी? इस कोष में जहाँ तक था सभी साहित्यों से लेकर भर दिया और उसका तुलनात्मक विवेचन कर अपना मत प्रकट कर विषय को साफ कर देने में कोई कसर हो नहीं उठा रक्खी और निघण्टु को 'निघंटना बिना वैद्यो वाणी व्याकरणं बिना' इस कहावत के अनुसार ही इसको ऐसा बनवाया गया कि प्रत्येक वैध का कार्य इसके बिना यथेच्छ सिद्धही न हो सके । विशेष विशेषताए इस कोषके लेखक ने स्वयं अपनी भूमिका में लिख दी हैं, जिनका बताना हमारे लिए केवल मात्र पुनरुक्रि करना ही होगा | अतः हम उस पर मौनावलम्बन करके आगे चलते हैं। आपको यदि अभिप्रेत हो तो 'लेखक के दो शब्दों को पढ़ने की उदारता कीजिए। । यही नहीं कि सिर्फ धनिएं पर ही ऐसा लिखा है। नहीं नहीं प्रायःसभी वनस्पतियों पर ही यही झगड़ा डाला गया है । इसके दो ही कारण हमारी अल्प मति में पाते हैं, -पद्य रचना है, पद्य रचना करते समय पधको पूरा For Private and Personal Use Only
SR No.020089
Book TitleAyurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size29 MB
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