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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अग्नि अभिकरी रसः (भापकासा) कहते हैं। यह हमारा प्राचीन अग्नि-(१५) वैद्यकके मससे अग्नि तीन प्रकार तेजस् तत्व है । हवा, पानी की भाप, इत्यादि । की मानी गई है-यथा-(क) भौम, जो गृह इसके उदाहरण हैं। किसी पदार्थ को जब बहुत काष्ठ आदि के जलनेसे उत्पन्न होती है । (ख) गर्मी दी जाती है तो वह अंत में इस रूप को दिव्य-जो आकाश में बिजली से उत्पन होती है, धारण करता है। तेजस द्रव्यों में कुछ तो दृश्य (ग) उदर व जठर, जो पित्त रूप से नाभि के हैं अर्थात् देख पड़ते हैं और कुछ अदृश्य, इनमें उपर हृदयके नीचे रहकर भोजन भस्म करती है। दो विशेष गुण है, एक तो अपना इसका कोई इसी प्रकार कर्मकांड में अग्नि छः प्रकार की प्राकार नहीं होता, जैसे वर्तन में भर दीजिए मानी गई है। गार्हपत्य, अाहवनीय, दक्षिणाग्नि, उसी प्रकार का हो जायगा । गीले, चौखट्टे, सभ्याग्नि, आवसथ्य, प्रौपासनाग्नि । इनमें तिकोने आकार के धारण करने में इसे कोई कलि- पहिली तीन प्रधान हैं । (१६) वेद के तीन नाई नहीं होती । दूसरी बात जो इसमें पाई जाती प्रधान देवताओं (अग्नि, वायु और सूर्य ) में से है वह यह है कि इसका कोई अपना परिमाण नहीं । एक। होता । एक इत्र की शीशी लीजिए । अभी उसमें अग्नि-पार agni-ara-पा० अयार, यज्ञ छाल। गंध के परिमाण वाष्प रूप से हैं, किंतु उनका- मेमो। परिमाण उतना ही है जितनी कि शीशी में खाली | अनिउ agniu-कुमा० बसोटा, बक्राच । मे० जगह है। यदि आप शीशी की डाट खोल दीजिए मो०। तो अभी गंध सारी कोठरी में फैल जायगी । अर्थात् अग्निउम् agnium-हिं० पु. बसौटा, बक्राच । अब वही परमाणु बढ़कर कोठरी के बराबर हो __ अग्निरुहा, मांसरोहिणी-सं०। गया | अतः वाप्पीय द्रव्य वे हैं जो अपना स्वयं अग्निक agnika-हिं० संज्ञा पु. ()इन्द्रकोई परिमाण या प्राकार नहीं रखने प्रत्युत अग्निकः agnikah-स. पु. गोप, वीरजिस पात्र में रक्खे जाते हैं उसी के प्राकार और बहूटी । अषाढ़े पोका-बं० । an insect of परिमाण को ग्रहण कर लेते हैं । भौ० वि०। a bright scarlet colour (Mutella (१)चित्रका चीता (Plumbago Ze. occiden talis) सु. मि. अाहे. ylanica, Linn.) सियो० ग्रहणी चि०। च. ४ का । (२) चित्रक वृक्ष ( Plumविस्वाच घृत | बा० सू० १५ १० प्रारग्वध bago zeylanica, Linn.) वा. चि. व. । (६) अमिजार वृक्ष (agnijara) ७०। (३) भिलावाँ, भवातक वृक्ष (Se. रा०नि०३० २३ । (७) पीतबालक । mecarpus anacardium, Linn. ) () केशर, Saffron (Crocuss ativus: भा०प्र० १ भा० ह. व.। Linm.) (8) पित्त ( Bile), (१०) अग्निकर चूर्ण agnikara-churna-हिं. अम (११) निम्बुक वा नीबू (Citrus me. पु. शरा, अनार दाना, हड़, सोचर नोन, कुड़े dica, (Gold.)। रा०नि० ब०२१ । (१२)। की छाल, इनका चूर्ण अग्नि संदीपक और अतिस्वर्ण, सुवण (Aurun )। रा०नि०व० सार नाशक है । व्यास. यो.स। १३ । (१३) भल्लातक, भिलावों (Seme· अग्निकरो रसः agnikalo rasah-सं०प० carpus anacardium, Linn.) TTO शिंगरफको काले बैंगन के रस से वार भावित निव०११। (१४) रक चित्रक, लाल- करें । पुनः वन भाँटा, चित्रक, पीपल की छाल, far ( Plumbago Rosea, Linn.) अमली और केले की जड़ इनके रसों अथवा रा०नि.व.६। च० द० ग्रहणी चि०। कायों की क्रम से भावना दें । फिर उसमें मेष. कपित्थाष्टक । नगद (चौलाई वारदार ) श्राक, थूहर, चिर्चिटा, For Private and Personal Use Only
SR No.020089
Book TitleAyurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size29 MB
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