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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (८७२) मष्टांगहृदय । म. २६ उसे प्रक्लिंवित कहते हैं । छेदन द्वारा शरीर | ससंरंभ व्रणका शोधन । का कोई अंग अलग होजाय तो उसे पाति- ससरंभेषु कर्तव्यमूर्य चाधश्च शोधनम् । तधाव कहते हैं । कोष्ठ को छोडकर अन्य उपवासो हितं भुक्तं प्रततं रक्तमोक्षणम्॥ स्थान में छोटे मुखवाला घाव जो शल्य के अर्थ-सूजनवाले घाव में वमन और विधने से होता है वह विद्ध कहलाता है। विरेचन देकर शोधन करना चाहिये । कोष्ठ के विद्ध होनेपर जो घाव होता है उसे उपवास, अवस्थानुसार पूर्वोक्त हितकारी भिन्न घाव कहते हैं । प्रहार, पीडन और | भोजन, तथा बार बार रक्तमोक्षण हितकारी उत्प्रेषण द्वारा कोई अंग अस्थिसे चिपट | होता है। . गया हो तो और उसमें से मज्जा वा रक्त निकलता हो तो उसे विदलित कहते हैं। घृष्टादि की चिकित्सा । सोत्रण में सेचन । घृष्टे विदलिते वैष सुतरामिप्यते विधिः। तयोहल्प स्रवत्यत्रं पाकस्तेनाशु जायत । सद्यःसद्यो व्रगसिंचेदथ यष्ट्याहवसर्पिषा। तीनव्यथ कवोष्णेन बलातैलेन वा पुनः ॥ __अर्थ-घृष्ट और विदलित घ.वमें पूर्वोक्त अर्थ-ब्रण का स्वरूप जानकर वेदना चिकित्सा करना चाहिये । इष्ट और रिद. से युक्त ताजी घाव पर मुलहटी डालकर लित में रक्त कम निकलता है, इसलिये ये सिद्ध किया हुआ ईषदुष्ण घी वा बला का जल्दी पकजाते हैं। तेज़ बार बार डाले। विक्षत में स्नेहपानादि। घाव की गरमी पर लेप । अत्यर्थमनं स्रवति प्रायशोऽन्यत्र विक्षते । क्षतोष्मणोनिग्रहार्थतत्कालं विशुतस्य च। ततो रक्तक्षयाद्वायौ कुपितेऽतिरुजाकरे ॥ फपायशीतमधुरस्निग्धा लेपादयो हिताः ॥ महपानपरीषेकस्वेदलेपोपनाहनम् । अर्थ तत्काल उत्पन्न हुए गरमी को नेहवास्ति च कुर्वीत वासघ्नौषधसाधितम् .. अर्थ-वृष्ट और विदलित व्रणोंके सिवाय दूर करने के लिय कषाय, शीतवीर्य, मधुर अन्य सब घाबों में से बहुत रक्त निकलता और स्निग्ध लेपादिक करने चाहिये ।। है इसलिये वे पकते नहीं हैं। रक्त के तीक्ष्ण आयत ब्रण की चिकित्सा।। सद्योव्र गेयायतेषु संधानार्थ विशेषतः।। हेनो से वायु कुपित होकर अत्यन्त वेदना मधुसर्विश्च युजीत पित्ताश्च हिमाः उत्पन्न करती है । इसलिये इनमें स्नेहपान क्रियाः ॥ ८ ॥ परिषेक, स्वेद, प्रलेप, उपनाह और बात .. अर्थ-जो तत्काल का उत्पन्न हुआ घाव नाशक औषधियों से सिद्ध की हुई स्नेहवस्ति फैलगया हो तो उसके जोडने के लिये का प्रयोग करना चाहिये। शहत और घी का प्रयोग करना चाहिये । सातदिन के पीछे का विधान । इसमें पितनाशनी तथा शीतल क्रिया हित इति साप्ताहिकाप्रोक्तःसद्यो बणहितो विधिः होती हैं। सप्ताहादतवेगे तु पूर्वोक्तं विधिमाचरेत् १३ For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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