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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म.१७ चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत । (६३९] हलीमक की चिकित्सा। सप्तदशोऽध्यायः। गुडू स्वरसक्षरिसाधितेन हलीमकी ॥ mooooooor महिषीहविषा स्निग्धः पिबेद्धात्रीरसेन तु । त्रिवृतां तद्विरिक्तोद्यात्स्वादु पित्तनिलापहम् | अथाऽतः श्वयथुचिकित्सित व्याख्यास्यामः द्राक्षालेहं च पूर्वोक्तं सीषि मधुराणि च । अर्थ-अब हम यहांसे सूजन की चियापनान्क्षीरवस्तींश्च शीलयेत्सानुवासनान् | कित्सावाले अध्याय की व्याख्या करेंगे । मार्कीकारिटयोगांश्च पिवेद्यक्त्याग्निवृद्धये । सूजनमें चिकित्सा क्रम । कासिकं बाभयालेहं पिप्पलीमधुकं वलाम् | "सर्वत्र सर्वांगसरे दोषजे श्वयथौ पुरा । पयसा च प्रयुंजीत यथादोपं यथावलम्। सामे विशोषितो भुक्त्वा लघुकोष्णांभसाअर्थ-हलीमक रोगी को गिलोय के रस पिवेत् ॥ १॥ और दुधमें सिद्ध किये हुए घी से स्निग्ध नागरातिषादारुविडंगेंद्रयवोषणम् । करके श्रामले के रसके साथ निसौथ पान | अथवा विजयाशुठीदेवदारुपुनर्नवम् ॥२॥ करावै । इससे विरेचन होनेपर वातपित्त नवायसं वा दोषाढ्यः शुध्यै मूत्रहरीतकीः । वराकाथेन कटुकाकुंभायस्कषणानिवा ॥ नाशक स्वादु पथ्य, पहिले कहा हुआ द्राक्षा अथवा गुग्गुलुं तद्बजतु वा शैलसंभवम् । वलेह, मधुरगणोक्त साधित घृत, प्राणवर्द्धक अर्थ-वातादि दोषोंसे उत्पन्न हुई सर्वांग क्षीरवस्ति और अनुबासन देवे, तथा अग्नि सूजनमें पकनेसे पहिलेही लंघनद्वारा विशोकी वृद्धिके लिये मार्दीक और अरिष्ट का पित करके हलका भोजन करनेके पीछे सौंठ प्रयोग करै । अथवा कास चिकित्सत्सितोक्त अतीस, देवदारू, बायबिडंग, इन्द्रजौ, और अभयावलेह, दूधके साथ पीपल, मुलहटी कालीमिरच अथवा हरड, सौंठ, देवदारू, और खरैटी इन सब औषधों का प्रयोग और सौंठ इनको गरम जलके साथ पान दोष और बळके अनुसार करना चाहिये । करे । जो रोगी दोषोंकी अधिकता से आपांडुरोगमें सूजनकी चिकित्सा। क्रांत हो तो पांडुरोग में कहा हुआ नवायस पांडुरोगेषु कुशलः शोफोक्त चूर्ण सेवन करावै । विरेचन के लिये गोमूत्र च क्रियाक्रमम् ॥ ५७ ॥ के साथ हरड, अथवा त्रिफला के काय के अर्थ-पांडुरोग में कुशल वैद्यको शो- | साथ कुटकी, निसौथ, लोहचूर्ण और त्रिकुटा फोक्त चिकित्सा की प्रणाली का अबलंबन | अथवा गूगल वा शिलाजीत का पान करावे. । करना चाहिये। मंदाग्निमें तक्रपान ! इतिश्री अष्टांगहृदयंसहितायां भाषा | मंदाग्निः शीलयेदामगुरुभिन्नविबद्धषिट् ॥ टीकायां चिकित्सितस्थाने पांडरोग तकं सौवर्चलव्योषक्षौद्रयुक्तं गुडाभयाम् । तक्रानुपानामथवा तद्वद्धा गुडनागरम् ॥ चिकित्सितं नाम अर्थ-सूजन वाले रोगी की आग्न मंद षोडशोऽध्यायः। | हो, तथा मल अपक, भारी, शिथिल बा For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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