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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( ६३२ ] हृदय | लिये सब प्रकार की वातादिनाशिनी क्रिया | मार्गपर्यटन, दिन में सौना, सवारी आदि पर चढना इन कार्यों का छोड देवै । उदर में पानव्यवस्था । नात्यर्थसांद्रं मधुरं तपाने प्रशस्यते ॥ सकणालवणं वाते पित्ते सोपणशर्करम् । यवानीसैंधवाजाजीमधुव्योषैः कफोदरे ॥ त्र्यूषणक्षारलवणैः संयुतं निचयोदरे । मधुतैलवचाशुंठीशता हूषाकुष्ठसंधवैः ॥ ब्लीहिनि बद्धे तु हपुषायवानीपट्टजादिभिः। सकृष्णा माक्षिकं छिद्रे व्योषवत्सलिलोदरे ॥ अर्थ - जठर रोग में कफ गाढा, मधुर रस से युक्त तक श्रेष्ठ होता है, वातोदर में पीपल और सेंधानमक डालकर, पित्तोदर में काली मिर्च और खांड मिलाकर, कफोदर में अजवायन, सेंधानमक, जीरा, शहत और त्रिकुटा मिलाकर, सन्निपातोदर में त्रिकुटा जवाखार और नमक मिलाकर, प्लीहोदर में मधु, तेल, वच, सोंठ, सौंफ, कूठ और सेंधानमक मिलाकर, बद्धोदर में हाऊबेर, अजवायन, सेंधानमक और जीरा आदि मिलाकर, छिद्रोदर में पीपल और शहत मिलाकर तथा जलोदर में त्रिकुटा का चूर्ण मिलाकर पान कराना चाहिये । करनी चाहिये । उदररोग में पथ्य ॥ वन्दिमंदत्वमायाति दोषैः कुक्षौ प्रपूरिते ॥ तस्माद्भेोज्यानि भोज्यानि दपिनानि लघूनि च । सपंचमूलान्यल्पाम्लपटु स्नेहकहूनि च ॥ अर्थ-दोषोंके द्वारा कुक्षिके मरजाने से अग्नि मंद पडजाती है, इसलिये अग्निसंदी - पन और हलके भोजन करने चाहिये । भो. जनमें पंचमूल, थोडी खटाई, नमक, स्नेह • और कटु द्रव्य डालना चाहिये । उदर में यवागूआदि । भावितानां गवां मूत्रे षष्टिकानां च तंडुलैः । वागूं पयसा सिद्धां प्रकामं भोजयेन्नरम् ॥ पिवेदिक्षुरसं चानु जठराणां निवृत्तये । स्वं स्वं स्थानं ब्रजत्येषां वातपि त्तकफास्तथा ॥ १२४ ॥ अर्थ- साठी चांवलों में गोमूत्र की भावना देकर दूध के साथ उन चांवलों की यवागू सिद्ध करके जठर रोगी को तृप्तिपर्यन्त पान करावे, ऊपर से ईख का रस • करावे, ऐसा करने से कफ, वात और पित्त अपने अपने स्थान को चले जाते हैं । पान उदररोग में त्याज । अत्यर्थो णाम्ललवणं रूक्षं ग्राहि हिमं गुरु । गुड तैलकृतंशाकं वारिपानावगाहयोः ॥ आया साध्वदिवास्वप्नयानानि च परित्यजेत् । अर्थ - अत्यन्त, उष्ण, अम्ल, लवण, रूक्ष, प्राही, शीतल, भारी, गुड, तेल के पदार्थ, शाक, जलपान, स्नान, परिश्रम, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ०१५ वातकफादि में तक्रको श्रेष्ठता । गौरवाचकानाहमंद वन्ड्यतिसारिणाम् । त वातकफार्तानाममृतत्वाय कल्पते ॥ अर्थ- वात कफ से पीडित उदर रोग यदि मारापन, अरुचि, आनाह, अग्निमांद्य, और अतिसार हो तो तक अमृत का काम देता है | For Private And Personal Use Only तक का प्रयोग | प्रयोगाणां च सर्वेषामनुक्षीरं प्रयोजयेत् ।
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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