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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ५९६) अष्टांगहृदय । अ०१२ अर्थ-कफपित्त प्रमेहमें साल, सातला, | जड, हरड, भूकदंव, भिलावा, कंजाकी जड, कंपिल, कुडा, बहेडा, कैथ और रोहेडा इनके | बरनाकी जड, पीपलामूल, पुष्करमूल, प्रत्येक फूलोंको पीसकर शहतके साथ वा आमले दस पल लेवे, तथा जौ, बेर, कुलथी प्रत्यक के रसके साथ पान करै । एक प्रस्थ लेवे, इन सव द्रव्योंसे अठगुना प्रमेहपर तैलादि । जल लेकर अग्निपर चढादे, जव चौथाई त्रिकंटकनिशारोधसोमवल्कवचार्जुनैः।। शेष रहै तब छानकर उस काढेमें पीपल,पीपद्मकाश्मंतकारिष्टचंदनागुरुदीप्यकैः॥१७॥ पलामूल, चव्य, वच, जलवेत, रोहिषतृण, पटोलमुस्तभंजिष्ठामाद्रीभल्लातकैः पचेत् । तैलं वातकफे पित्ते घृतं मिश्रेषु मिश्रकम् ॥ निसोथ, वायविडंग, कंपिल्ल, भाडंगी, और अर्थ-गोखरू, हलदी, लोध, सफेदखैर, । बेलगिरी इनके कल्कके साथ एक प्र. वच, अर्जुन, पदमाख, अश्मंतक, नीम, ला- | स्थ घीको पकावै । यह घृत संपूर्ण प्रकारकी लचंदन, अगर, अजमोद, पर्बल, मोथा, म- प्रमेहसंबंधी फुसी, विपरोग, पांडुरोग, विद्रधि जीठं, अतीस और भिलावा इन सब द्रव्योंके | | गुल्म, अर्श, सूजन, शोष, गररोग, उदररोग, कल्कके साथ तेल पकाकर प्रयोग करने से | श्वास, खांसी, वमन, वृद्धि, प्लीहा, वातरक्त, वातकफज प्रमेह नष्ट होजाता है । पित्तज प्र- | कुष्ठ, उन्माद, और अपस्मार रोगोंको दूर कमेह में इन्हीं सव द्रव्योंके साथमें पकाया हुआ रता है । इस घृतका नाम धान्वन्तर घृत हैं । घी सेवन करना चाहिये । मिले हुए दोषोंमें रोधासव । उक्त द्रव्योंके कल्कके साथ मिले हुए घी और रोभ्रमूर्वाशठीवेल्लभार्गीनतनखप्लवान् ॥ कलिंगाष्टकमुकप्रियंग्यविषाग्निकान् । तेल पकाकर उपयोग में लाने चाहिये । द्वे विशाले चतुर्जातं भूनिंब कटुरोहिणीम् ।। धान्वन्तर घृत । यवानी पौष्करं पाठां ग्रंथि चव्यं फलत्रयम् दशमूलं शठी दंती सुराहूवं द्विपुनर्नवम् ।। कर्षाशमंबुकलशे पादशेषे सते हिमे ॥ मूळं स्नुगर्कयोः पथ्यां भूकदंवमरुष्करम् ॥ द्वौ प्रस्थौ माक्षिकात्क्षिप्त्वा रक्षेत्पक्षमुपेक्षया करंजवरुणान्मलं पिप्पल्याः पौष्करं च यत् ।| रोध्रासवोऽयं मेहार्श श्वित्रकुष्ठारुचिकृमीन् पृथग् दशपलं प्रस्थान यबकोलफुलत्थतः। | पांडुत्वं ग्रहणीदोषं स्थूलतां च नियच्छति । धींश्चाष्टगुणिते तोये विपचेत्पादवर्तिना। | ___ अर्थ - लोध, मूर्वा, कचूर, बायबिडंग, तेन द्विपिप्पलीचव्यवचानिचुलरोहिषैः ॥ | तगर, नखी, क्षुद्रमाथा, इन्द्रजौ, कूठ, त्रिवृद्धिडंगकंपिल्लभार्गीविल्वैश्च साधयेत् । । सुपारी, मालकांगनी, अतीस, चीता, दोनों प्रस्थं घृताजयत्सास्तन्महानपिटिकाविषम् ॥ पांडुविद्राधगुल्मार्शःशोफशोषगरोदरम्। इन्द्रायण, दालचीनी, तेजपात, इलायची, श्वासं कासं वर्मि वृद्धिं प्लीहानं वातशोणितम् | नागकेशर, चिरायता, कुटकी, अजवायन, उष्टान्मादावपस्मार धान्वंतरमिदं घृतम् । | पुष्करमूल, पाठा, पीपलामूल, चव्य और अर्थ-दशमूल, कचूर, दंती, देवदारु,ला- | त्रिफला इन सब द्रव्यों को एक एक कर्षे लसांठ, सफेद सांठ, थूहरकी जड, आककी | लेकर इनको १०२४ तोले पानीमें चढावै,जब For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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