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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (५३८) अष्टांगहृदय । हा प्राश्य प्राग्वयःस्थापनं वा। | इधर उधर फेंकती हुई स्त्रियां उस पानभूमि तत्प्रार्थिभ्यो भूमिभागे समृष्टे को शोभित कर रही हों । अनवस्थित तोयोन्मिश्रं दापयित्वा ततश्च ॥ ८४॥ धृतिमान् स्मृतिमान्नित्यमनूनाधिकमाचरन् | स्वरूपको धारण करती हुई, स्तन और उचितेनोपचारेण सर्वमेवोपपादयन् । ८५। नितंबों के भार से अलसाती हुई, ईश्वर के जितविकसितासितसरोज- भयसे गमनमें आकुलमना तथा तरुणोंकेचित्त नयनसंक्रांतिवर्धितश्रीकम् । को वशीभूत करने में जादूका असर करने कांतामुखमिव सौरभ वाली । यौवन मदसे मत्त विलासबती तहृतमधुपगणं पिबेन्मद्यम् ॥ ८६ ॥ न्वंगी कामिनीगण इतस्ततः चलरही हों। अर्थ-स्नान करनेके पीछे देवता, व्रा- तालवृत और नलिनीदल अर्थात ताड के ह्मण और गुरु लोगों को यथा योग्य प्रणाम | और कमलके शीतल पंखों से अति शीतल करके तथा समस्त परिजनों के भोजनादि कियाहुआ मद्य देखने मात्रही से काम के व्यापार को करके आहार मंडपके निकटवर्ती वशीभूत करनेवाला फिर पीनेवाले के चित्त कपूर और खस आदि के शीतल जल से | का तो कहना ही क्या है । आमके रसादि छिडकी हुई पानभूमि में जाना चाहिये । द्वारा सुगंधीकृत, विकसित मल्लिकाके फूलों तदनंतर सुंदर और कोमऊ गद्दे तकियों से से यक्त स्फटिक और सीपी के पात्रों में युक्तशय्यापरबैठे और अपने इष्टमित्र,सेवक और | भराहुआ, तरंगों से युक्त, अनंगके सदृश रमणीगणोंसे परिवृत होकर मद्यपान करे और | रमणीक रूपको धारण करनेवाला मद्य को मद्यपान के समय कत्थक और चारण उसके | सन्मुख रखलिया जाय । मद्यपान से पहिले यश और लोक विस्मयकारक कीर्तिका गुण | तालीसपत्रादि चूर्ण, अथवा एलादि चर्ण गान करते रहें । विलासिनी स्त्रियों के उठने, अथवा रसायनोक्त वयःस्थापन चूर्णको खाबैठने, चलने तथा हर्ष, भ्रकुटिसंचालन कर, स्वच्छ की हुई भूमि में मद्यपान का और कटाक्षादि विलासशाभी तथा नृत्य स- अधिकारी देव दानव कूष्मांडादि के निमित्त हित सुंदर बाजों की मधुरध्वनि, कांची जलमिश्रित मद्य अर्पण करके स्वयं बुद्धिमान् और किंकणियों की गंभीर झनकार और स्मृतिमान, न्यूनता और अधिकतासे रहित सारसादि क्रीडा पक्षियों की गुंजार से अनु- | उचित उपचारों से युक्त संपूर्ण उपादानों नादित पानभूमि होनी चाहिये । माण और को एकत्रित करे । फिर खिलेहुए श्वेत सुवर्ण से खचित पानपात्र तथा अनेक रंग कमलों को तिरस्कार करनेवाले नेत्रों के के लहरियादार रेशमी वस्त्रों को धारण किये | संचारसे बढीहुई शोभावाले, कांता के हुए शीतल जलसिक्त मुनिजनों के मनको । मुखके सदृश सौरभयुक्त और सौरभसे हरनेवाली भयत्रस्त हरिणकी तरह नेत्रों को हृत भ्रमणगणों से युक्त मद्यका पानकरे । For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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