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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org चिकित्सतस्थान भाषाटीकासमेत । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० ६ (५२५५) अर्थ- कमिज हृद्रोगमें सब प्रकारकी कृमिनाशक औषध करनी चाहिये | तृषारोग में उपाय | तृष्णासु वातपित्तघ्नो विधिःप्रायेण युज्यते ॥ सर्वासु शतो वाह्यांतस्तथा शमनशोधनम् अर्थ - सब प्रकार के तृषारोगों में प्रायः वात और पित्त नाश करने वाले उपाय किये जाते हैं, तथा भीतर और बाहर दोनों ओर शीतल उपचार तथा शमन और शोधन ये सब उपाय काम में लाने चाहिये । तृपारोग में चिकित्सा | नाया हुआ मं श्रेष्ठ है तथा कच्चे जौ पीसकर खांड और शहत मिलाकर ठंडा वाट्य हितकर है, शालीचांवल वा बहुत पुराने कोदों का यवागू खांड और शहत मिलाकर सेवन करना हित है । अथवा शीतवीर्यवाले द्रव्यों से बनाया हुआ ठंडा भोजन, अथवा शीतलजल से परिषिक्त किये हुए मनुष्यको दूध, खांड और मधुसहित भोजन हित है। तथा जांगल जीवों के मांसरस में थोडी खटाई, सेंधानमक डालकर वीमें भूनकर उसके साथ भोजन हित है । जीवनीयगणोक्त औषधों के साथ सिद्ध किया हुआ मूंग और मसूरादिका यूप हित है । चंदनादि शीतवीर्यं द्रव्योंके साथ सिद्ध नस्य हित है । तथा । 1 दिव्यांबु शीतं सक्षौद्र तद्वद्भौम च तद्गुणम् ॥ निर्वापितं तप्तलोकपालसिकतादिभिः । सशर्करं वाक्कथित पंचमूलेन वा जलम् । ६० दर्भपूर्वेण मंथश्च प्रशस्तो लाजसक्तुभिः । वाट्यश्वामयवैः शतिंः शर्करामाक्षिकान्वितः यवागूः शालिभिस्तद्वत्कोद्रवैश्च चिरंतनैः शीतेन शीतवीर्यैश्च द्रव्यैः सिद्धन भोजनम् । हिमां परिषिक्तस्य पयसा ससिता मधु । "सैश्वानम्ललवणैजगलैर्धृतभर्जितैः । ६३ । मुद्रादीनां तथा यूपैर्जीवनीयर सान्वितैः । नस्यं क्षीरवृतं सिद्ध शीतैरिक्षोस्तथा रसः ॥ निर्वापणाश्च गवाः सूत्रस्थानोदिता हिताः। दाहज्वरोक्ता लेपाद्या निरीहत्वं मनोरतिः ॥ महासरिदादीनां दर्शनस्मरणादि च । किये हुए क्षीरघृत का सूत्रस्थानमें कहे रोपण गंडूषों का धारहुए ण करना हित है तथा दाहम्बर में कहे हुए प्रलेपादि हित हैं । तथा निश्चेष्टता, 1 मनकी निवृत्ति, तथा बडे बडे नद, नदी, तालाव और सरोवरों को देखना और उनकी याद करना हित है | अर्थ - शीतल आंतरीक्ष जल शहत मिलाकर पीना हित है | अथवा प्रशस्त भूमि का जल भी शहत के साथ आंतरीक्ष जलक समानही गुणकारी होता है । अथवा मिट्टी के . डेले, ठीकरा, बालू आदि को गरम करके बुझाया हुआ जल ठंडा होनेपर शर्करा मिला- कर पान करना, अथवा तृणपंचमूल के साथ पकाया हुआ जल, अथवा केवलजल पीना हित है । अथवा धानकी खीलों के सत्तू से ब. बातजतृषा की चिकित्सा | तृष्णायां पवनोत्थायां सगुडं दाधे शस्यते रसाश्च बृंहणाः शीता विदार्यादिगणांबु वा अर्थ- वातज तृषामें गुडमिला हुआ दही वृंहणकर्ता शीतल मांसरस, और विदार्यादि गणोक्त द्रव्योंका काढा सेवन करना हित है । पित्तजतृषा की चिकित्सा | पित्ताजायां सितायुक्तः पक्कोदुंबरजो रसः ॥ तत्काथो वा हिमस्तद्वत्सारिवादिगणांबु वा । तद्विधैश्च गणैः शीतकषायान्स सितामधून मधुरैरौषधैस्तद्वत् क्षीरिवृक्षैश्च कल्पितान् For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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