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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत । ३ और तेजपात ) आधा कर्श, पीपल दो तोळा, तथा चीनी, दाख, मुलहटी और खिजूर प्रत्येक एक एक पल इनको वारीक पीसकर शहत डालकर गोलियां बना लेवे ये गोलियां पुष्टिकारक, तथा रक्तपित्त, खांसी, श्वास, अरुचि, वमन, मूर्छा, हिमा हृल्लास, भ्रम, क्षतजन्य क्षीणता, स्वरभ्रंश लोहा, शोथ, आढयवात, खखार के साथ रुधिरं निकलना, हृदयशूल, पसली का दर्द तृव का वेंग और ज्वर इन सत्रको दूर करता है । रक्तनिष्ठीवन में सांठका चूर्ण | वर्षांभूशर्करा रक्तशालि तंडुलजम् रजः । रक्तष्ठीवी पिवेत्सिद्धं द्राक्षारसपयोघृतैः ८३ मधूकमधुकशीरसिद्धं वा तन्डुलीयकम् । अर्थ- सांठ, शर्करा, लाल शाळी चांवलों की रज इनको दाखके रस, दूध और घी के साथ सिद्ध करके पीने से रुधिर का थूकना बंद होजाता है, अथवा महुआ के फूल, मुलहटी और चौलाई इनको दूध में पकाकर पीने से भी रुविर का थूकना बंद हो जाता है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क्षामादिमें चिकित्सा | क्षामः क्षीणक्षतोरक्को मुखादिविस्तरतमें उपाय | “यथास्वमार्गावस्रुते रक्ते कुर्याच्च भेषजम् ॥ | अर्थ-मुखादि मार्गों द्वारा रुधिर निकलता हो तो रक्तपित्तचिकित्सित अध्याय में कही हुई यथायोग्य चिकित्सा करनी चाहिये । मूढवात में कर्तव्य | मृढवातस्त्वजामेदः सुराभृष्टं ससैंधवम् । अर्थ- मूढवात में बकरे के मेदाको सुरामें भूनकर थोडा सेंधानमक डालकर सेवन करे । ( ४९.१ ) • मन्दनिद्रोऽग्निदीप्तिमान् ॥ ८५ ॥ नृतक्षरिसरेणाद्यात्सघृतक्षौद्रशर्करम् ।। अर्थ- जो मनुष्य कृश और क्षीण है, जि. स की छाती के भीतर घाव है, जिसको नींद कम आती है, जिसकी जठराग्नि प्रदीप्त है वह औटे हुए दूध की मलाई, घी, राहत और शर्करा मिलाकर बकरेके मेदेके साथ खाय । शर्करां यवगोधूमं जीवकर्षभको मधु ८६ ॥ अन्य अवलेह | तक्षरानुपानं वा लिह्यात्क्षीणक्षतः कृशः । अर्थ - शर्करा, जौ, और गेंहूं का चून, जीवक, ऋषभक, और शहत इनको मिलाकर चाटै, ऊपरसे औटा हुआ दूध पान करे, इस से क्षीणता, और कृशता जाती रहती है, तथा छाती का घाव भर जाता है । For Private And Personal Use Only मांसादिवर्द्धन औषध । क्रव्यात्पिशितनिर्यूहं घृतभृष्टं पिबेच्च सः ॥ पिप्पलीक्षौद्रसंयुक्तं मांसशोणितवर्धनम् । अर्थ-उ - उक्त प्रकारका रोगी मांसभक्षी जीवों के मांसरसको घी में छोंककर पानकरे इस में पीपल और शहत भी डाल लेवे । इस से मांस और रुधिर बढता है । क्षतोरस्कादि में घृतविशेष । म्यग्रोधोदुंबराश्वत्यलक्षशालप्रियंगुभिः ८८ तालमस्तकजंवृत्व प्रियालैश्च सपद्मकैः । साश्वकर्णैः शृतात्क्षीरादद्याज्जातेन सर्पिषा शाल्योदनं क्षतोरस्कः क्षीणशुक्रबलेंद्रियः । अर्थ - ढाक, गूगल, पीपल, पाकड, साल, और प्रियंगु इनकी छाल, ताडकी कोंपल, जामनकी छाल, चिरोंजी की छाल, पदमाख,
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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