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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ०१२ निदानस्थान भाषाटीकासमेत । [४१३] अर्थ-उदररोग आठ प्रकार के होते | पुषिकी वृद्धि अथवा न निकलना, पांवों हैं, यथा-वातज, पित्तज, कफज, त्रिदो- पर कुछ सूजन, वस्तिकी संधियों में शूल षज, प्लीहज (प्लीहोदर ) बद्वज(वद्धोदर) होना, हलका और थोडा खाने परभी अक्षतज ( क्षतोदर ) और जलज (जलोदर) | फरा, उदर की सिराओं का दिखाई न उदररोगपीडित के लक्षण। | देना, तथा मांसकी वलि अर्थात् सलवटों तेनार्ताः शुष्कताल्बोष्ठाः शूनपादकरोदराः॥ का लोप होना ये सब उदररोग के पूर्वरूप नष्टचेटायलाहाराःकृशाः प्रध्मातकुक्षयः४॥ स्युः प्रेतरूपाः पुरुषाःअर्थ-उदररोग से पीडित मनुष्य के ___ सब प्रकार के जठर रोगोंमें तंद्रा,शरीर | में शिथिलता, मलबद्धता, अग्निमांद्य, दाह, तालु और ओष्ठ सूख जाते हैं, हाथ पांव और उदर पर सूजन आजाती है, शरीरक सूजन और अफरा होता है, अंतमें जल की चेष्टा, बल, और आहार कम हो जाते हैं, उत्पत्ति होती है। उनके देह कृश और कुक्षि में अफरा होता अतोय उदरके लक्षण । सर्व त्वतोयमरुणमशोकम् नातिभारिकम् ॥ है । ऐसा रोगी प्रेतरूप दिखाई देने ल गवाक्षितम् सिराजालैः सदा गुडगुडायते। गता है। नाभिमंत्रम् च विष्टभ्य वेगं कृत्वा प्रगश्यति उदररोग का पूर्वरूप । मारुतो हत्कटीनाभिपायुवंक्षणवेदनः । भाविनस्तस्य लक्षणम् । सशब्दो निश्वरद्धायुर्षिड्बन्धोशुनाशोऽनं चिरात्सर्व सविदाहं च पच्यते | मूत्रमल्पकम् ॥ ११ ॥ जीर्णाजीर्ण न जानाति सौहित्यं सहतेन च। नातिमन्दोऽनलो लौल्यं न च स्याद्विरसम् मुखम्। क्षीयते बलतःशश्वच्छ्वासत्यल्पेऽपिचेष्टिते वृद्धिर्विशोऽप्रवृत्तिश्च किंचिच्छोफश्च- । ___ अर्थ-जलोदर को छोड़कर सब प्रकार पादयोः। के उदर रोगों में उदरका वर्ण लाल,सूजनरुग्वस्तिसंधौ सतता लवल्याभोजनैरपि ॥ रहित और गरुतारहित होता है । नसों के राजीजन्म वलीनाशो नठरे जाल के समूह से झरोखेकी तरह हो जाता जठरेषु तु । सर्वेषुतंद्रा सदनं मलसंगोऽल्पवह्निता ८॥ है और सदा गुड गुड करता रहता है । दाहः श्वपथुरामानमन्ते सलिलसंभवः। तथा वायु नाभि और अंत्रमें बिष्टव्धता अर्थ-उदररोग होने से पहिले क्षुधाका | उत्पन्न करके हृदय, कटि, नामि, गुदा और नाश, भुक्त अन्नका दाह के साथ देर में | वंक्षण में वेदना करता हुआ अपने रूप पचना, जीर्ण और अजीर्ण में कुछ अंतर को दिखाकर नष्ट होजाता है,तथा शब्दकरता न मालूम होना, पेटभर कर भोजन का | हुआ बाहर निकलता है, इससे मलबद्धता, न सहना, दिन प्रतिदिन बल की णिता, और मुत्रकी अल्पता होजाती है । जठराग्नि थोड़े चलने फिरने में भी शासकी वृद्धि, । अत्यन्त मंद नहीं होती है, भोजन में इच्छा For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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