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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ.११ निदानस्थान भाषाटीकासमेत । (५१) - है । वह रक्त ग गुल्म दुष्ट रक्त का आधार । श्रय है जैसे बातगुल्मका वातही आश्रय है। लेकर गभाशय में अत्यन्त शूल उत्पन्न | पित्त नहीं हो सकता । इसी तरह अन्य दोकरता है और योनि में स्राव, दुर्गधि, तोद | षों को भी समझना चाहिये । स्वदोषसश्रित संदन और वेदना होती है। होने के कारण गुल्म देरमें पकता है अथवा ___रक्तगुल्ममें विलक्षणता। नहीं पकता है परन्तु विद्रधि दूषित रक्तके नांगैर्गर्भवद्गुल्मः स्फुरत्यपि तु शूलवान् । | आश्रित होनेसे शीघ्र पक जाती है । इसी पिंडीभूतः स एवास्याः कदाचित्स्पंदते चिरात् ॥५४॥ लिये शीघ्र विदाही होने के कारण इसे विद्रन चास्या वर्धते कुक्षिगुल्म एव तु वर्धते । धि कहते हैं । कहा भी है" मांसशोणितभू अर्थ-जिस तरह गर्भ हाथ पांव आदि यस्त्वात् पाकंगच्छति विद्रधिः । मांसशोणित अंगावयवद्व रा उदरके भीतर निरंतर उछल- हीनत्वचात् गुल्मः पाकं न गच्छति । अंतराता रहता है परन्तु शूल उत्पन्न नहीं करता श्रित गुल्ममें वस्ति, कुक्षि, हृदय और प्लीहा है । परन्तु गुल्मके अंगावयव नहीं होते इस के स्थानमें वेदना होती है । जठराग्नि, वर्ण लिये वह उछलता नहीं है, परन्तु वेदना क- और वलका नाश हो जाता है और मलमूत्रारता है और वही गुल्म गोलासा बनकर क. दि के वेग रुक जाते है अर्थात् दस्त और दाचित् कालांतर पीछे उछलता है गर्भकी त. पेशाव बन्द हो नाता है । परन्तु वहिराश्रित रह जल्दी जल्दी नहीं उछलता है। जब भी. गुल्ममें उक्त लक्षणोंसे विपरीत लक्षण होते हैं तर गर्भ होता है तब कुक्षि बढती है परन्तु अर्थात् वस्ति, कुक्षि, हृदय और प्लीहादि गुरुम के भीतर रहनेपर कुक्षि नहीं वढती कोष्टके अंगोंमें अधिक वेदना न होना, जगुल्म ही बढता है। ठराग्नि, वर्ण और वलका नाशाभाव, वेगका गुल्म और विद्रधिका भेद । प्रवर्तन, तथा गुल्मस्थानमें विवर्णता, और स्वदोषसंश्रयो गुल्मः सर्वो भवति तेन सः बाहरके भागमें अत्यंत ऊंचापन ये सब ल. पाकं चिरेण भजते नैव वा विद्रधिः पुनः। । क्षण उपस्थित होते हैं। पच्यते शीव्रमत्यर्थ दुष्टरक्ताश्रयत्वतः ५६॥ | आनाहलक्षण । अतःशीघ्रविदाहित्वाद्विद्रधिःसोऽभिधीयते४ साटोपमत्युग्ररुजमाध्मानमुदरे भृशम् ॥ गुलमेंऽतराश्रये बस्तिकुक्षिहत्पलीहवेदनाः ॥ ऊर्वाधो वातरोधेन तमामाहं प्रचक्षते । अग्निवर्णबलदंशो वेगानां चाप्रवर्तनम् । अर्थ-ऊपर नीचे वातके अवरोधसे उअतो विपर्ययो बाह्ये कोष्ठांगेषु तुनातिरुक् ॥ दरमें गुड गुडशब्द, अत्यंत तीव्र वेदना, वैवर्ण्यमवकाशस्य बहिरुन्नतताधिकम्।। और आध्मान । ये लक्षण आनाह रोग में अर्थ-सब प्रकारके गुल्म अपने अपने होते हैं । दोषोंके आश्रित होते हैं, अर्थात जो गुल्म अण्ठीला और प्रत्यष्ठीला। जिस दोषसे हुआ है वही दोष उसका आ-घनोऽष्ठलिोपमो अंथिरष्टीलोज़ समुन्नतः ।। For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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