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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शारीरस्थान भाषाटीकासमेत । युक्त होती है तथा जिसमें रुधिर सहित विष्टा । अर्थ-अतीसाररोग में यदि मल यकृत राध, वेदना, श्वास, खांसी ये उपद्रव हों और | पिंड, मांस के धोवन के जलवत् वा नीलदीर्घ कालानुवर्तिनी होतो वह रोगी को मार वर्ण हो, अथवा तेल घृत, दूध, दही, डालती है। मज्जा, वसा, आसव, मस्तुलंग ( माथे की __ तृषासे मृत्युके विह। चर्वी ) पूय, मांसजल वा शहत के सदृश तृष्णान्यरोगक्षपितं बहिर्जिवं विचेतनम् ।। हो, अथवा अत्यन्त लाल, अत्यन्त काला, __ अर्थ-तृषारोगमें यदि रोगी अन्य रोगों अत्यन्त चिकना, दुर्गधियुक्त, निर्मल, गाढा से पीडित हो । बाहर को अपनी जीभ निका और वेदनायुक्त हो । अथवा रक्तमांसादि लता हो,अचेत होतो ऐसा रोगी मरजाता है। धातुओं के अधिकतर निकलने से अनेक मदात्यय चिन्ह ॥ वर्णयुक्त, पुरीषरहित वा अतिपुरीषयुक्त मदात्ययोऽतिशीतात क्षीण तैलप्रभाननम् । हो, जिसमें तंतु हों, मक्खियां वैठती हो, अर्थ-मदात्ययरोग में जो रोगी अत्यन्त जिसमें रेखासी हों, मोरपुच्छकी चन्द्रका की शीतात, क्षीण और तेल के समान दिखाई दे तरह अनेक वर्ण हों, जिसकी गुदाकी अतो उसकी मृत्यु निकटवर्ती होती है ॥ वलि शीर्ण और गुदनाडी का बंधन ढीला अर्श चिन्ह ॥ होजाय तथा पर्व और अस्थियों की सी अशॉसि पाणिपन्नाभिगुदमुष्कास्यशोफिनम्। येदना होने लगे । जिसकी गुदा अपने इत्पाॉगरुजाछर्दिपायुपाकज्वरातुरम् । स्थान से हटगई हो, वलक्षीण होगया हो, । अर्थ-अर्शरोग में यदि हाथ, पांव, | अपक अन्न वाहर निकल आवै तथा तृषा, नाभि, गुदा, अंडकोष और मुख इनमें सू श्वास, ज्वर, वमन, दाह, पानाह और प्रजन हो, तथा हृदय, पसली वा अन्य अंगों वाहिका ये उपद्रव भी विद्यमान हों तो वह में वेदना हो, और वमन, गुदापाक और | रोगी मरजाता है। ज्वर ये उपद्रव हों तो रोगी मरजाता है। । अश्मरी के चिन्ह । अतिसार के विकार। | अश्मरी शूनवृषणं वद्धमूत्रं रुजार्दितम्। अर्तासारो यकापिंडमांसधावनमेचकैः। ८०।। अर्थ-पथरी के रोग में यदि अंडकोष तुल्यस्तैलघृतक्षीरदधिमज्जवसासवैः। में सूजन, बद्धमत्रता और वेदना हो तो मस्तुलुगमषीपूयवेसवारांबुमाक्षिकैः। ८१ । रोगी मरजाता है । अतिरक्तासितस्निग्धपूत्यच्छघनवेदनः।। प्रमेह चिन्ह । कर्बुरप्रस्रवन्धातूनिष्पुरीषोऽथवाऽतिविट मेहस्तृडदाहापटकामांसकोथातिसरिणम । तंतुमान् मक्षिकाक्रांतोराजीमांश्चंद्रकैयुतः। अर्थ-प्रमेह में यदि तृषा, दाह , पिटिका शीर्णपायुवलि मुक्तनालं पर्वास्थिशूलिनम्। .. सस्तपायुं बलक्षीणमन्नमेवोपवेशयेत् । । सतृह श्वासज्वरच्छर्दिदाहामाहप्रवाहिकः।। हों तो रोगी मरजाता है । उपद्रव For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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