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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ( २९४ ) www. kobatirth.org अष्टांगहृदय | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ ३ दूर कर देते है, और घृतादि स्निग्ध पदार्थ कोमल करदेते हैं और फिर इस आमाशयस्थ अन्न को समानवायु से प्रदप्ति की हुई ( धोंकी हुई ) अग्नि पकाती है और थूक छींक, डकार इत्यादि का आना उसके पकाव को सूचित करता है, यहां दृष्टान्त है कि जैसे पात्र में रक्खे हुए चांवलों को जल अलग कर देता है और वाह्य आग्ने मुख वा व्यजनादि की पवन से उद्दीप्त होकर उसे पका देती है और झाग, फुरफुद शब्द आदि उसके पकने की सूचना देते हैं । अर्थ - तदनंतर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश इन पंत्र महाभूतों की ऊष्मा आहार के अपने अपने पार्थिवादि गुणों को पकाती हैं अर्थात् पार्थिव ऊष्मा पार्थिव गुणको, जलीय ऊष्म जलके गुण को, वायुसंबंधी ऊष्मा पवनात्मक गुण को और आकाशीय ऊष्मा आकाश संबंधी गुण का पाक करती है और प्रौदर्याग्नि का गुण तो पहिले ही वर्णन करचुके हैं । | अग्नि समीपस्थ अन्नकी अवस्था । आदौ षड्रसमप्यन्नं मधुरीभूतमीरयेत् । फेनीभूतं कफं वातं विदाहादम्लतां ततः ५७ पित्तमामाशयात्कुर्याच्च्यवमानं च्युतं पुनः । अग्निना शोषितं पक्कं पिंडितं ककुमारुतम् ५८ अर्थ- प्रथम छः रसों से युक्त होने पर भी खाया हुआ अन्न मधुरता को प्राप्त होकर झागदार कफको उत्पन्न करता है। तदनंतर मध्यम अवस्था होती है इसमें आमाशय से पक्काशय की ओर खिसकते हुए अन्न में विदाह के कारण खट्टापन आजाता है और उक्त अवस्था में पित्तको उत्पन्न करता है । तदनंतर तीसरी अवस्था प्राप्त होती है, इसमें वह अन्न पक्वाशय में आजाता है और वहां जठराग्नि द्वारा शोत्रित होकरं पिंडाकार बनजाता है और कटु रसयुक्त होकर वायु को उत्पन्न करता है । अन्य अग्नियों के कर्म । भौमायाग्नेयवायव्याः पंचोष्माणः सनाभसाः पंचाहारगुणान्स्वान् स्वान् पार्थिवादीन् - पचेत्यनु ॥ ५९ ॥ भूतगुणों का पोषण । यथास्वं ते च पुष्णंति पक्त्वा भूतगुणानपृथक् । पार्थिवाः पार्थिवानेव शेषाः शेषांश्च देहगान अर्थ-ये पार्थिवादि पंचमहाभूतों के आश्रित गुण अपनी अपनी ऊष्माद्वारा पक्व होकर देह में स्थित हुए अपने अपने पार्थिवादि पृथक् पृथक् गुण की पुष्टि करते हैं जैसे पार्थिव गुण देहके पार्थिव भागकी ही पुष्टि करता है । यह न समझलेना चाहिये कि सब गुण मिलकर सबकी पुष्टि करते हैं । रस रक्तादि धातु वा अन्यस्थलों में भी ये पंचमहाभूत ऊष्मा अपने २ गुणों को ही पुष्ट करती हैं क्योंकि रसादि में भी तो इनका अंश विद्यमान रहता है । कनके भेद | For Private And Personal Use Only किट्टू सारश्च तत्पक्कमन्नं संभवति द्विधा । तत्राऽच्छं किटमन्नस्य मूत्रं विद्याधनं शकृत् सारस्तु सप्तभिर्भूयो यथास्वं पच्यतेऽग्निभिः अर्थ - उदर में पके हुए अन्नके दो भेद होते हैं यथा ( १ ) किट्ट, (२) सार, इन में से अन्नका जो पतला किट्ट अर्थात् मैल
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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