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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अ० १३ www.kobatirth.org सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत । अर्थ - अंजन की कल्पना तीन प्रकारकी होती है, यथा, पिंडी, रसकिया और चूर्ण, इनमें से गुरु दोषमें पिंडी, मध्य दोष में रसक्रिया और लघुदोष में चूर्णका प्रयोग किया जाता है । तक्ष्णिादि चूर्ण का प्रमाण । हरेणुमात्रं पिंडस्य वेल्लमात्रा रसक्रिया । तीक्ष्णस्य द्विगुणं तस्य मृदुनः चूर्णितस्य च ॥ द्वेशला तु तीक्ष्णस्यतिस्रःस्युरितरस्य च । अर्थ-*तीक्ष्ण वीर्यवाले द्रव्यों से बने हुए पिंड का परिमाण मटर के समान होता है | मृदुद्रव्यों से बने हुए पिंडका परिमाण दो मटर के समान और रसक्रिया का परिमाण विडंग के समान होताहै । तीक्ष्ण चूर्ण की दो सलाई और मृडु चूर्णकी तीन सलाई गाईजाती हैं । रात्रपादिमें अंजन का निषेध | निशिस्वप्नमध्याह्ने पानान्नोष्णगभस्तिभिः ॥ अक्षिरोगाय दोषाः स्युर्वर्धितोत्पीडितद्रुताः । प्रातः सायंच तच्छात्यै व्यर्केऽतोऽजयेत्सदा अर्थ - रात्रि के समय, नींद में, मध्यान्ह के • समय अंजन न लगाना चाहिये । तथा जब उष्ण किरणों से नेत्र म्लानहोरहे हों उस समयभी अंजन न लगावै, क्योंकि इन समयों में × अन्य ग्रन्थों में लिखा है कि लेखनांजन तांवे, वा कांसी इन में से किसी में रोपणांजन सुवर्ण, वट वा शंख, प्रसादनांजन स्फटिक, पाकड़, वा चंदन इन में से किसी में रक्खे। इस तरह अंजन में कोई अवगुण नहीं होने पाते हैं । बत्ती घिसनेकी शिला पांच अंगुल लंबी तीन अंगुल चौडी बीच में कुछ नीची होनी चाहिये । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १९७ ) अंजन लगाने से सब दोष बढजाते हैं, उत्पीडित होते हैं, और गरमी के कारण पिघल कर आंखों में रोग उत्पन्न करते हैं । इसलि - ये सायंकाल और प्रातःकाल के समय सूर्य के बादलसे रहित होने पर जब गरमी की अधिकता नहो नेत्ररोगों की शांति के लिये अंजन लगावै । अन्य आचायों का मत । वदूत्यन्ये तु न दिवा प्रयोज्यं तीक्ष्णमंजनम् । विरेकदुर्वलं चक्षुरादित्यं प्राप्य सीदति ॥ स्वप्नेन रात्रौ कालस्य सौम्यत्वेन च तर्पिता । शीतसात्म्या हगाग्नेयी स्थिरतां लभते पुनः ॥ अर्थ - अन्य आचार्यों का यह मत है कि दिनमें तीक्ष्ण अंजन ना लगाना चाहिये । क्योंकि तीक्ष्ण अंजनसे आंसू निकलने ... कारण नेत्र सूर्यकी किरण में शिथिल होजाते है इसलिये रात्रि में अंजन लगाना चाहिये । क्योंकि तीक्ष्ण अंजन से नेत्रों के क्षोभित होने पर भी सौम्यता और निद्रावस्था के कारण आग्न्येयी और शीतसात्म्य दृष्टि फिर तर्पित हो जाती है और पुनर्वार स्थिरताको प्राप्त कर लेती हैं I अन्यमत में दूषण | अत्युद्रिक्ते बलासे तु लेखनीयेऽथवा गदे । काममयपि नात्युष्णे तीक्ष्णमणिप्रयोजयेत् अर्थ- अति उत्कृष्ट कफरोग में अथवा लेखन के योग्य शुक्रार्मादि रोगों में अत्यन्त गरम दिन में अंजन न लगावै । क्योंकि काल की गरमी और अंजन की तीक्ष्णता का अतियोग होने के कारण दृष्टि का नाश है । For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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