SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 283
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org (१८६ ) अष्टांगहृदयम् । अ० २० | .जन्मकाल से मृत्यु पर्यन्त हितकारी होता है तथा इसका निरंतर सेवन किया जाय तो यह मशके समान गुणकारी है । इस प्रतिमर्श के सेवन में किसी प्रकारका बंधनभी नहीं है अर्थात् उष्णजल पानादि की यंत्रणा नहीं है और मर्श की तरह नेत्रस्तब्धता आदि रोगों का भय भी नहीं है । अर्थ-स्नेहवस्तिं के सदृश प्रतिमर्श भी | करे ? इस प्रश्नका यही उत्तर है कि मर्श आशुकारी और दोषोंको शीघ्रही दूर करने वाला है, प्रतिमर्श चिरकारी अर्थात् दोषों को देर में दूर करने वाला है इसलिये दोषों को शीघ्र दूर करने के हेतुसे मर्श में गुणों की उत्कर्षता है और देरमें दोषोंको दर करने के हेतुसे प्रतिमर्श में गुण की अपकर्षता है । इ न दोनों में केवल इतनाही अंतर है । इस लिये जो मनुष्य शीघ्र सुखोच्छ्वासादि के उप कार के पाने की इच्छा करता है उसे मर्श नामक स्नेह नस्यका ग्रहण करना चाहिये । इसीतरह अच्छपेय स्नेह तथा अन्य स्नेह पान, कुटीमें प्रवेश करके स्थिति तथा बाता तपादि की अपरिहार स्थिति में जो रसायन का प्रयोग किया जाता है इसीतरह अन्वा - सन वस्ति और मात्रावस्ति ये सब बिलंब से गुण करनेवाले तथा शीघ्रगुण करनेवाले हैं यही अंतर इन सब में है । अणुतैल | प्रतिमर्श में तेल को श्रेष्ठत्व तैलमेवच नस्यार्थे नित्याभ्यासेन शस्यते ॥ शिरसः श्लेष्मधामत्वात्स्नेहाः स्वस्थस्यनेतरे अर्थ - मस्तक श्लेष्मा का स्थान है इस . लिये तन्दुरुस्त मनुष्य के लिये श्लेष्मनाशक ते ही उत्तम होता है । अन्य स्नेह कफवर्द्धक होते हैं इसलिये उनको काममें लाना उचित नहीं है | जैसे नित्याभ्यास के कारण प्रतिभर्श उपकारक है इसीतरह तेलकी नस्यभी निरंतर अभ्यास में हितकर है । मर्श और प्रतिमर्शका अंतर । आशुकच्चिरकारित्वं गुणोत्कर्षापकृष्टता ॥ मैच प्रतिमर्शे च विशेषो न भवेद्यदि । को मर्श सपरीहारं सापदं च भजेत्ततः ॥ अच्छपानविकाराख्यौ कुटीवाताऽतपस्थिती अम्वासमात्राबस्ती च तद्वदेव च निर्दिशेत् अर्थ - प्रतिमर्श नस्य यदि नित्य सेवन करनेपर मर्श के समान गुणकारी हो और इसके उपकारी होने के बिषय में कोई विशेषता न हो तो मर्श नस्य के सेवन में जो शीतलजल सेकादि परिहाररूप अनेक प्रकार के निय ॥ का प्रतिपालन करना पडता है और जिस में अक्षिस्तब्धादि अनेक प्रकार की व्यापत्ति उत्पन्न होती हैं उसको कौन सेवन Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जीरीतीजलदेवदारुजलदत्वकू सेव्यगोपाद्दिमंदार्वीत्वङ्मधुकप्लवा गुरुवरापुंडा विल्वोत्पलं धवन्यौ सुरभिः स्थिरे कृमिहरं पत्रंत्रुटिरेणुकंकिंजल्कं कमलाद्दयं शतगुणे दिव्येऽभसिक्वाथयेत् ॥ ३७ ॥ तैलाद्रसं दशगुणं परिशेष्य तेनतैलं पिश्च सलिलेन दशैव वारान् । पाके क्षिपेश्च दशमे सममाज दुग्धम्नस्यं महागुणमुशंत्यणुतैलमेतत् ३८ ॥ अर्थ - जीवन्ती, नेत्रवाला, देवदारू, नागरमोथा, दालचीनी, कालावाला, अनन्त मूल, रक्तचन्दन, दारुहळदी, दालचीनी, | मुलहटी, कदंब, अगर, त्रिफला, पौंडरीक, For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy