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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir .अ. १२ सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत । (१०९, है और वायु के क्षीण होने पर वे गुण पित्त का स्थान । । दिखाई भी नहीं देते और जव दोष समाना-नाभिरामाशय स्वेदो लसीका रुधिरं रसा। वस्था में होते हैं तव अपने २ कर्मों को दृक् स्पर्शनंच पित्तस्य नाभिरत्र विशिषतः॥ नियमित रीति से पूरा करते हैं। अर्थ-नाभि, आमाशय, पसीना, थूक, दोषों को समान रखना। रुधिर, रस, नेत्र और त्वचा इन आठ स्थानों य एव देहस्य समा विवृद्धये में पित्त रहता है, इन में से नाभि पित्त के त एव दोषा विषमा वधाय । रहने का प्रधान स्थान है पहिले कह चुके हैं यस्मादतस्ते हितचर्ययैव कि वायु त्वचा में रहता है इससे कोई कहे क्षयाद्विवृद्धरिब रक्षायाः ॥ ४५ ॥ कि वायु और पित्त दोनों त्वचा में कैसे रहप्रथे-जब दोष समानावस्था में होते सकते हैं। इसका समाधान यह है कि पित्त हैं तब देह की वृद्धि के हेतु होते हैं । वे ही अग्निस्वरूप है और वायु अग्नि का प्रज्व. दोष विषमावस्था में होकर वृद्धि पाकर वा लित करनेवाला है, इसलिये मित्रहै , विरोधी क्षीण होकर मृत्यु के कारण हो जाते हैं। नहीं है । इस तरह बात पित्त की मैत्री होने इस से हितजनक आहार विहारादि द्वारा के कारण एक स्थान में बास होसकता है । दोष का क्षय वा बृद्धि न होने दे। कफ का स्थान । इतिश्री अष्टांगहृदये भाषाठीकायां उरकंठशिरक्लोमपर्वाण्यामाशयो रसः एकादशोऽध्यायः॥११॥ मेदोघ्राणं च जिव्हा च कफस्य सुतरामुरा३॥ अर्थ-छाती, कण्ठ, सिर, मूत्राशय, जोड़, आमाशय,रस, भेद, घाण ( नासिका ) और द्वादशोऽध्यायः। जीभ ये कफ के दस स्थानहै । इनमें से कफ का प्रधान स्थान छाती है। अथाऽतो दोषभेदीयाध्यायं व्याख्यास्यामः॥ प्राण बायु । " अर्थ-अव हम यहांसे दोष भेदीय अध्याय प्राणादिभेदात्पंचात्मा वायुः की व्याख्या करेंगे। प्राणोऽत्र मूर्धगः। . वायु का स्थान । उरकंठचरो बुद्धिहृदयेद्रियचित्तधृक् ॥४॥ 'पकाशयकटीसक्थिश्रोत्राऽस्थिस्पर्शनेंद्रियम्। ष्ठीवनक्षवधूद्गारनिःश्वासानप्रवेशकृत्। स्थानं वातस्य तथाऽपि पक्काधानं विशेषतः॥ अर्थ-वायु का एक ही चलन स्वभाव है, अर्थ- पक्वाशय,कटी, ऊरू, कर्ण, अस्थि वायु के पांच भेद हैं, यथा--प्राण, उदान, और त्वचा ये वायुके छः स्थान है किंतु इन | व्यान, समान, और अपान । अर्थात् एकही में से पक्वाशय ही वायु के रहने का प्रधान | बायु भिन्न २ काम करने से पांच नार्मों से स्थान है। बोली जाती है। For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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