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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra (७८) www. kobatirth.org अष्टांगहृदये अहिताहार सेवनका परित्याग | अत्यंतसन्निधानानां दोषाणां दूषणात्मनाम् || अहितैर्भूषणं भूयो न विद्वान् कर्तुमर्हति । अर्थ- वातादिक दोष एक दूसरे के अत्यन्त निकटवर्ती हैं और इनका स्वभाव ही दूषण रूप है, अतएव विद्वानको उचित नहीं है कि अहित आहार के सेवन से इनको अधिक दूषित करे । flag का विधान | क्रमका फल | त्सा आदि प्रकरणों में प्रसंगानुसार वर्णन किया जायगा । | यहां केवल निद्रा और ब्रह्मचर्य का वर्णन क्रमेणापचिता दोषाः क्रमेणोपचिता गुणाः ४९ नाप्नुवंति पुनर्भावमप्रकंप्या भवंति च । अर्थ - पूर्वोक्त क्रमका पालन करने से अपथ्यका त्याग और मध्यका सेवन करने से अपथ्य के अभ्यास से उत्पन्न हुए रोग धीरे धीरे नष्ट हो जाते हैं और फिर होने नहीं पाते इसी तरह पथ्यके अभ्यास से उत्पन्न हुए गुण वृद्धि पाकर स्थिर हो जाते हैं । आहारायनाल वस्त्या ५१॥ शरीर धार्यते वित्यमागारमिव धारणेः । अर्थ-आहार, निद्रा और ब्रह्मचर्य (स्त्री त्याग ) इन तीनों की युक्तिपूर्वक योजना करने से शरीर बहुत काल तक टिका रहता है अर्थात् बहुत दिन तक जीता रहता है जैसे अच्छे खंभों से घर बहुत दिन तक ठहरा रहता है I । आहार योजना | आहारो वर्णितस्तत्र तत्र तत्र च वक्ष्यते । ५२॥ अर्थ - आहार, निद्रा और ब्रह्मचर्य इन तीनों में से आहार का वर्णन ऋतुचर्य्याध्याय में कर दिया गया है, तथा ज्यरचिकि A किया जाता है | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० निद्रा की आवश्यकता । विद्वायत्तं सुखं दुःखं पुष्टिः कायै बलाबलम् । वृषता क्लबिता ज्ञानमज्ञानं जीवितं न च ॥ अर्थ- सुख, दुख, पुष्टि, कृशता, बल, और अवल, पुरुषत्व और क्लीबल्य, ज्ञान और अज्ञान ये सब निद्रा के आधीन हैं, इसी तरह जीवन और मरण भी निद्रा ही के आधीन हैं । अनियमित निद्राका फल | अफगाच न च निद्रा निषेविता । सुखायुषी पराकुर्यात्कालरात्रिरिवाऽपरा५४ अर्थ - अकाल निद्रा ( निद्रा के उचित काल का परित्याग ), अतिनिद्रा ( योग्यका ल से अधिक सोना ) अल्पनिद्रा ( न सोना वा थोडा सोना ) ये तीनों प्रकारकी निद्रा सुख और आयुका ऐसे नाशकरदेते हैं जैसे कालरात्रि सुख और आयुका नाश करती है । For Private And Personal Use Only रात्रि जागरणादि । रात्रौ जागरणं रूक्षं स्निग्धं प्रस्वपनं दिवा । अरूक्षमनमिष्यंदि त्वासीनप्रचलायित्तम् ५५ अर्थ - रातमें जागना रूक्ष है और दिन में सोना स्निग्ध है । बैठे बैठे झांका खाना वा भघनान रूक्ष है न अभिष्यन्दी है । इस से यह समझ में आता है कि रूक्षता का हेतु रात्रिजागरण वातवर्द्धक है और स्निग्धका हेतु दिनमें सोना कफकारी हैं ।
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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