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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत । अर्थ--जीविका हित, व्याधिग्रस्त, और बोलने आदि पर उपदेश । शोकपीडित मनुव्यों की यथाशक्ति सहायता | काले हितं मितं ब्रूयादविसंवादि पेशलम् ॥ करता रहै । कीडेगकोड़े और चींटीपर्य्यन्त पूर्वाभिभाषी सुमुखः सुशीलः करुणामृदुः२६ नैकः सुखी न सर्वत्र विश्रब्धो न च शंकितः। सत्र को सदा अपने ही समान देखे । न कंचिदात्मनःशत्रु नात्मानं कस्यचिद्रिपुम्। अन्य उपयोगी कर्म । | प्रकाशयेन्नापमानं न च निःोहतां प्रभोः ॥ चर्वयेद्देवगोधिप्रवृद्धवैद्यनृपातिथीन् ॥ अर्थ-प्रसंग आनेपर हितकारी, थोड़े, विमुखानार्थिनः कुर्यानावमन्यत नाशिोत् । सत्य, कामों को प्यारे और मीठे वचनों उपकारप्रधानः स्यादपकारपरेऽन्यरौ ॥ अर्थ--देव, गौ, ब्राह्मण, वृद्ध (वयोवृद्ध, से बोलना चाहिये । अपने पास आनेवालों शीलवृद्ध, ज्ञानवद्ध, ) वैद्य, राजा और अ के साथ प्रथम आपही बोले उसके बोलने तिथि । भोजन के समय आनेवाला परदेशी की अपेक्षा न करै । सदा हँसमुख रहै, सुमनुष्य ) इनका यथा योग्य सन्मान करता शीन, दया और कोमल चित्तवाला रहै । अकेला ही सुख भोगने की इच्छा न रक्खै, रहै । याचकों को विमुख न जाने दे और | सब में विश्वास और सबमें ही अविश्वास न कठोर वचन कहकर उनका तिरस्कार भी न करै । जो शत्रु भी अपने साथ बुराई करने रक्खै । किसी के साम्हने प्रकट न करे में तत्पर हो तो भी उस के साथ उपकार कि में अमुक मनुष्य का शत्रु हूं और अमुक करता रहै । मनुष्य मेरा शत्रु है । अपना निरादर वा सुखदुख में समभाव । अपने मालिक की अपने ऊपर प्रीति घटने 'संपद्विपत्स्क मना हेतावीर्येत्कले न तु २५ का किसी के सन्मुख प्रकाश न करै । अर्थ-संपत्ति और विपत्ति में सदा एक अन्य के साथ वर्ताव । सा मन रखना चाहिये, संपत्ति में तो हर्ष से जनस्याशयमालक्ष्य यो यथा परितुष्यति २८ तं तथैवानुवर्तेत पराराधनपंडितः ॥ फूलकर मदांध न हावे और विपत्ति में शो ___ अर्थ-मनुष्य की प्रकृतिको जानकर जो कातर और दीन न बन जाय । ईष्या हेतुपर | जैसे प्रसन्न हो सक्ता हो उसको वैसेही प्रकरना उचित है फल पर न करनी चाहिये । सन्न करने का उपाय करै । जो दूसरे को इसका यह तात्पर्य है कि विद्यादिक गुणों से | प्रसन्न करलेता है वही चतुर है । मान मिलता है तो उसके मान भंग करने इन्द्रियों का नियम । की इच्छा न रख कर उस मान का हेतु जो | न पीडयहिंद्रियाणि न चैतान्यतिलालयेत्२९ विद्या है उसको अपने में लाकर उसके ब- | ___ अर्थ-जिव्हा आदि इन्द्रियों को कुत्सित राबर होने की इच्छा रखना उचित है। | अन्नादि के भक्षण से अत्यन्त पीडित न करै इस तरह करी हुई ईी दुर्गण नहीं किन्तु और न बहुमुल्य भोजनादि से उनका लाड़ गुणरूप है । प्यार करें। For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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