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१९२४)
अष्टाङ्गहृदयेव्रणे रोहति चैकैकं शनैरपनयेत्कचम् ॥२९॥
मस्तुलुङ्गनुतौ खादेन्मस्तिष्कानन्यजीवजान् ॥ शल्यसे दूरहुये विद्धमें और भंगसे विदलितमें क्रिया करनी योग्यहै, और शिरसे दूरहुये शल्यमें बलावार्तको प्रवेशकरै ।। २८ ॥ अन्यथा सिरका स्नेह झिरनेसे कुपितहुआ वायु इस घाववाले रोगीको मार देताहै और अंकुरित होतेहुये घावमें हौले हौले एक एक बालको दूरकर ।। २९ ॥ माथेके नेहके झिरजानेमें अन्य जीवके माथेके स्नेहको खावै ॥
शल्ये हृतेऽङ्गादन्यस्मात्स्नेहवर्ति निधापयेत्॥३०॥ और अन्य अंगसे दूर किये शल्यमें स्नेहकी वर्तिको स्थापितकरे ॥ ३० ॥
दूरावगाढाः सूक्ष्मास्या ये व्रणाः सुतशोणिताः॥
सेचयेच्चक्रतैलेन सूक्ष्मनेत्रार्पितेन तान् ॥३१॥ दूर अवगाढवाले और सूक्ष्म मुखवाले और रक्तको झिरातेहुये घावोंको सूक्ष्म नेत्रसे चक्रतैलको सेचितकरै ॥ ३१ ॥
भिन्ने कोष्ठे सृजाऽपूर्णे मूर्खाहृत्पार्श्ववेदनाः॥ ज्वरो दाहतुडाध्मानं भक्तस्यानभिनन्दनम् ॥ ३२ ॥ संगो विण्मूत्रमरुतां श्वासः स्वेदोऽक्षिरक्ततां ॥
लोहगन्धित्वमास्यस्य स्यादात्रे च विगन्धता ॥३३॥ भिन्नहुयेकोष्ठमें रक्तसे पारित होजानेमें मूर्छा हृत्पीडा ज्वर दाह तृषा अफारा भोजनकी इच्छाका अभाव ॥ ३२ ॥ विष्ठा मूत्र वायुका बंधा श्वांस पसीना नेत्रोंकी रक्तता और सुखमें लोहकी गंधका आना और शरीरमें दुर्गधका उपजना होताहै ॥ ३३ ॥ .
आमाशयस्थे रुधिरे रुधिरं छर्दयत्यपि ॥
आध्मानेनातिमात्रेण शूलेन च विशस्यते॥३४॥ आमाशयमें स्थितहुये रक्तमें रक्तकी छर्दि करताहै,अत्यंत अफारा और शूलसे व्याप्त होजाताहै ३४॥
पक्काशयस्थे रुधिरे सशूलं गौरवं भवेत् ॥
नाभेरधस्ताच्छीतत्वं खेभ्यो रक्तस्य चागमः॥३५॥ पक्वाशयमें स्थितहुये रक्तमें शूलसहित भारीपन होताहै, और नाभीके नीचे शीतलपना छिद्रोंके द्वारा रक्तका आना ॥ ३५ ॥
अभिन्नोऽप्याशयः सूक्ष्मैः स्रोतोभिरभिपूर्यते ॥
असृजा स्पन्दमानेन पार्श्वे मूत्रेण बस्तिवत् ॥३६॥ नहीं कटाहुआभी आशय सूक्ष्म स्रोतोंके द्वारा झिरतेहुये रक्तसे पूरित होजाताहै जैसे पार्श्वमें मूत्रसे बस्तिस्थान पूर्ण होताहै ।। ३६ ।। .
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