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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (९१२) अष्टाङ्गहृदयेकफसे पांडुरूप खाजसे संयुक्त और बहुतश्वेत तथा धन स्रावसे संयुक्त ओष्ठोंवाला और कठिन नस तथा नाडियोंके जालसे व्याप्त और अल्पपीडासे संयुक्त वाव होताहै ॥ ९ ॥ प्रवालरक्तो रक्तेन सरक्तं पूयमुद्रेित् ॥ वाजिस्थानसमो गन्धे युक्तो लिङ्गैश्च पैत्तिकैः॥१०॥ रक्तसे मूंगाके सदृश लालहुआ घाव रक्तसहित रादको उगलताहै, और गंधमें घोडेके स्थानके समान होताहै, और पित्तके घावके समान लक्षणोंसे युक्त होताहै १० ॥ द्वाभ्यां त्रिभिश्च सर्वैश्च विद्याल्लक्षणसङ्करात् ॥ दो दोषोंकरके अथवा तीन दोषोंकरके संसर्गजआदि घावको जानों ।। जिह्वाप्रभो मृदुः श्लक्ष्णः श्यावौष्ठपिटिकः समः॥११॥ किञ्चिदुन्नतमध्यो वा व्रणःशुद्धोऽनुपद्रवः ॥ और जीभके समान कांतिवाला कोमल लक्षण और धूम्रवर्ण ओष्ट और पिटिकासे संयुक्त समान ॥ ११॥ कछुक मध्यमें ऊंचा, और उपद्रवोंसे रहित घाव शुद्ध होताहे ।। त्वगामिषशिरास्नायुसन्ध्यस्थीनि व्रणाशयाः॥ १२ ॥ कोष्ठो मर्म च तान्यष्टौ दुःसाध्यान्युत्तरोत्तरम् ॥ __ और त्वचा मांस नाडी नस संधि हड्डी व्रणाशय ॥ १२ ॥ कोष्ठ मर्म ये आठों उत्तरोत्तर क्रमसे दुःसाध्य कहे हैं ॥ सुसाध्यः सत्त्वमांसाग्निवयोबलवति व्रणः॥१३॥ वृत्तो दीर्घस्त्रिपुटकश्चतुरस्राकृतिश्च यः॥ तथास्फिक्पायुमेद्रोष्ठपृष्ठान्तर्वक्रगण्डगः ॥ १४॥ और सत्त्वगुण मांस अग्नि अवस्था बलवाले मनुष्यका घाव सुसाध्य कहाहै ॥ १३॥ गोल लंबा और तीन पुटकोंवाला और चौकूटी आकृतिवाला कूला गुदा लिंग ओष्ठ पृष्ठ मुखके भीतर कपोलमें प्राप्तहुआ घाव सुसाध्य कहाहै ।। १४ ॥ . कृच्छ्रसाध्योऽक्षिदशननासिकापाङ्गनाभिषु॥ सेवनीजठरश्रोत्रपार्श्वकक्षास्तनेषुच ॥१५॥ नेत्र दांत नासिका कटाक्ष नाभि सीमन पेट कान पसली काख चूंची इन्होंमें घाव कष्टसाध्य कहाहै ॥ १५॥ फेनपूयानिलवहः शल्यवानू निर्वमी॥ भगन्दरोऽन्तर्वदनस्तथा कट्यस्थिसंश्रितः॥१६॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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