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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (८९८) अष्टाङ्गहृदयेपटोलनिम्बयष्टयावासाजात्यरिमेदसाम्॥ खदिरस्य वारायाश्च पृथगेवं प्रकल्पना ॥ १०७॥ परवल नींब मुलहटी वांसा चमेली दुर्गधितखैर साधारणखैर त्रिफला इन्होंकीभी अलग अलग कल्पना जाननी ॥ १०७ ॥ खदिरायोवरापार्थमदयन्त्यहिमारकैः॥ गण्डूषोऽम्बुशृतैर्धार्यो दुर्बलद्विजशान्तये ॥ १०८ ॥ खैर लोहा त्रिफला कौहवृक्ष वेलमोगरी हिंवरवृक्ष इन्होंको पानीमें पका मुखमें धारणकिया कुल्ला दुर्बल दांतकी शांतिके अर्थ कहाहै ॥ १०८ ॥ मुखदन्तमूलगलजाः प्रायो रोगाः कफास्त्रभूयिष्ठाः ॥ तस्मात्तेवामसकृद्रुधिरं विस्त्रावयेदुष्टम् ॥ १०९॥ विशेषकरके मुख दंतोंके मूल गल इन्होंमें उपजे रोग कफ और रक्तकी अधिकतासे हातेहैं तिस कारणसे वारंवार दुष्टरक्तको निकासे ॥ १०९ ॥ कायाशरसोविरेको वमनं कवलग्रहाश्च कटुकतिक्ताः॥ प्रायः शस्तं तेषां कफरक्तहरं तथा कर्म ॥ ११० ॥ शरीरका और शिरका जुलाब वमन कडवे और तिक्त कवलाह और विशेषताकरके कफ और रक्त हरनेवाला कर्म श्रेष्टहै ॥ ११ ॥ यवतृणधान्यं भक्तं विदलैः क्षारोषितैरपस्नेहाः॥ यूषा भक्ष्याश्च हिता यच्चान्यच्छेष्मनाशाय ॥ १११॥ यव और तृणधान्य भोजन क्षारसे भिगोयेहुये विदलसंज्ञक (शिम्बी आदि धान्य ) अन्नोंके संग हितहै और स्नेहोंसे वर्जित तिन्हीं अन्नोंकेही यूष और भक्ष्यभी हितहैं और जो पदार्थ कफका नाश करनेवालाहै बहो हितहै ॥ १११॥ प्राणानिलपथसंस्थाः श्वसितमपि निरुन्धते प्रमादवतः॥ कण्ठामयाश्चिकित्सितमतो द्रुतं तेषु कुर्वीत ॥११२ ॥ प्रमादवाले मनुष्यके प्राण और वायुके मार्ग स्थितहुये कंठरोग श्वासको रोकतेहैं इसकारण तिन्होंमें कुशल वैद्य शीघ्र औषधको करै ॥ ११२ ॥ इति बेरीनिवासिवैद्यपंडितरविदत्तशास्त्रिकृताऽष्टांगहृदयसंहिताभाषा काया मुत्तरस्थाने द्वाविंशोऽध्यायः ॥ २२ ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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