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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (८६०) अष्टाङ्गहृदयेअर्कोकुरानम्लपिष्टांस्तैलाक्ताल्लवणान्वितान् ॥ सन्निधाय स्नुहीकाण्डे कोरिते तच्छदावृतान् ॥ १३॥ . स्वेदयेत्पुटपाकेन स रसः शूलजित्परम् ॥ कांजीमें पिसेहुए और तेलमें भिगोयेहुये और सेंधानमकसे संयुक्त कके अंकुरोंको कोरितरूप थोहरके कांडेमें स्थापितकर और थोहरके पत्तोंसे आच्छादितकर ॥ १३ ॥ पुटपाक करके स्वेदितकरै पीछे निचोडाहुआ यह रस अतिशयकरके शूलको जीतता है ।। रसेन बीजपूरस्य कपित्थस्य च पूरयेत् ॥ १४॥ सुक्तेन पूरयित्वा वा फेनेनान्ववचूर्णयेत्॥ और बिजोराके तथा कैथके रस करके कानको पूरितकरै ॥ १४ ॥ अथवा कांजीकरके कानको पूरितकर पीछे समुद्रझागके चूर्णांकरके अवचूर्णित करै ।। अजाविमूत्रवंशत्वक्सिद्धं तैलं च पूरणम् ॥१५॥ सिद्धं वा सार्षपं तैलं हिंगुतुम्बरुनागरैः॥ अथवा बकरी और भेडका मूत्र वांसकी छाल इन्होंमें सिद्धकिया तेल कानमें पूरना हितहै ॥ १५ ॥ अथवा हींग चिरफल सूंठ इन्होंकरके सिद्धकिया सरसोंका तेल पूरनेमें हितहै ।। - रक्तजे पित्तवत्कार्यं शिराश्चाश विमोक्षयेत् ॥१६॥ और रक्तसे उपजे कर्णशूलमें पित्तकी तरह औषध करना योग्यहै परंतु तत्काल फस्तको खुलावै ॥ १६ ॥ पके पयवहे कर्णे धूमगण्ड्रषनावनम् ॥ युंज्यान्नाडीविधानं च दुष्टव्रणहरं च यत् ॥१७॥ पक्करूप और रादको बहानेवाले ऐसे कर्णमें धूमा कुला नस्य नाडी विधान और दुष्ट घावको नाशनेवाले औषधको प्रयुक्तकरै ॥ १७ ॥ स्रोतःप्रमृज्य दिग्धं तु द्वौ कालौ पिचुवर्तिभिः॥ पूरयेद् धूपयित्वा तु माक्षिकेण प्रपूरयेत् ॥१८॥ सुरसादिगणकाथफाणिताक्तां च योजयेत् ॥ पिचुवर्ति सुसूक्ष्मैश्च तच्चूर्णैरवचूर्णयेत् ॥ १९॥ रूईके फोहेकी बत्तियोंसे दोनोंकाल लेपितहुए कानके स्रोतको शुद्धकर और गुग्गुलुसे धूपितकर पीछे शहदसे पूरितकरै ॥ १८ ॥ सुरसादिगणके औषधोंके काथ और फाणित करके भिगोईहुई रूईके फोहेकी बत्तीको प्रयुक्तकरै,तथा सूक्ष्म पिसेहुए सुरसादिगणके चूर्णोकरके अवचूर्णितकरै।।१९।। शूलक्लेदगुरुत्वानां विधिरेष निवर्तकः॥ शूल क्लेद भारीपनको निवृत्त करनेकी यह विधि है । For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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