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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (८२९) गोमूत्रमें गायके गोबरके रसमें और कांजीमें और स्त्रीके दूध और घृतमें और विषमें और शहदमें बारंबार अग्निमें ज्वलितकिया और इन्होंमें बुझायाहुआ नीलाथोथा गरुडजीके समान नेत्रोंको करताहै ॥ ३३ ॥ श्रेष्ठाजलं भृङ्गरसं सविषाज्यमजापयः॥ यष्टीरसं च यत्सीसं सप्तकृत्वः पृथक्पृथक् ॥३४॥ तप्तं तप्तं पायितं तच्छलाका नेत्रे युक्ता सांजनानञ्जना वा ॥ तैमि-र्मस्रावपैच्छिल्यपैल्लं कण्डूं जाड्यं रक्तराजीञ्च हन्ति ॥३५॥ त्रिफलेका काथ भंगरेका रस विष घृत बकरीका दूध मुलहटीका रस इन्होंमें अलग अलग सात सातवार सीसेको ॥३४ ॥ अग्निमें तपा तपाके बुझाता जावे, पीछे तिसकी सलाई बना अंजनसे संयुक्त अथवा बिना अंजनके नेत्रमें युक्त करै यह सलाई तिमिररोग अर्मरोग पिच्छिलपना पैल्ल खाज जडपना रक्तराजीको नाशती है ॥३५॥ रसेन्द्रभुजगौतुल्यौ तयोस्तुल्यमथाञ्जनम्॥ईषत्कर्पूरसंयुक्तमंजनं नयनामृतम् ॥३६॥ यो गृध्रस्तरुणरविप्रकाशगल्लस्तस्यास्यं समयमृतस्य गोशकृद्भिःनिर्दग्धं समघृतमंजनं च पेष्यं योगोऽयं नयनवलं करोति गार्धम् ॥ ३७॥ पारा और सीसा बरावरभाग और तिन दोनों के समान सुरमा और सोलवाँ हिस्सा कपूर यह नयनामृत अंजनहै ॥ ३६ ॥ तरुणसूर्यके समान प्रकाशित गालवाला जो गीधहो यह समयमें आप से मरजावे तब तिसके मुखको ले गायके आरनोंके संग दग्धकरै और बराबर भाग घृत और सुरमा मिला पीसे यह योग नेत्रोंमें गीधके नेत्रोंसरीखे बलको करता है ॥ ३७॥ कृष्णसर्पवदने सहविष्कं दग्धमंजनमनिःसृतधूमम् ॥ चूर्णितं नलदपत्रविमिश्रं भिन्नतारमापिरक्षति चक्षुः॥३८॥ काले सांपके मुखमें घृतसे संयुक्त और नहीं निकले धूमेंवाला और दग्धहुए सुरमेंका चूर्णकर और बालछडके पत्तोंमें मिलाधरै, उपयुक्त किया यह चूर्ण भिन्नतारवाले नेत्रकीभी रक्षा करताहै ॥ ३८॥ कृष्णं सर्प मृतं न्यस्य चतुरश्चापि वृश्चिकान् ।। क्षीरकुम्भे त्रिसप्ताहं क्लेदयित्वा च मन्थयेत् ॥ ३९ ॥ तत्र यन्नवनीतं स्यात्पुष्णीयात्तेन कुक्कुटम् ॥ अन्धस्तस्य पुषेिण प्रेक्षते ध्रुवमंजनात् ॥ ४० ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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