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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम् । ( ८२१ ) तरह देखता है ॥ ३ ॥ दृष्टिके मध्य में स्थितहुये दोषमें एकवस्तुको दोप्रकार से देखता है बहुत प्रकार से स्थितहुये दोष में एकवस्तुको बहुतप्रकार से देखता है और दृष्टिके भीतर प्राप्तहुये दोषमें छोटे पदार्थको Last और बडे पदार्थको छोटा देखता है || ४ || और नीचेको स्थितहुये दोषमें समीपमें स्थितहुये पदार्थको नहीं देखता है और ऊपरको स्थितहुये दोषमें दूरस्थितहुई वस्तुको नहीं देखता है और पार्श्व में स्थितहुये दोष में पार्श्वगतरूपको नहीं देखता है यह तिमिरसंज्ञक रोग है ॥ ५ ॥ प्राप्नोति काचतां दोषे तृतीयपटलाश्रिते ॥ तेनोर्ध्वमीक्षते नाधस्तनुचैलावृतोपमम् ॥ ६ ॥ यथावर्णं च रज्येत दृष्टिहीयेत च क्रमात् ॥ तीसरे पटल में आश्रित हुये दोपमें काचपनेको प्राप्त होता है, तिस काचरोगसे ऊपरको देखता हैं, और नीचेको नहीं, यह रोग सूक्ष्मवस्त्र से आच्छादित हुयेकी समान उपमावाला होता है ॥ ६ ॥ और वर्णके अनुसार रोगको प्राप्त होता है और क्रमसे दृष्टी घटती जाती है | तथाप्युपेक्षमाणस्य चतुर्थं पटलं गतः ॥ ७ ॥ लिङ्गनाशं मलः कुर्वच्छादयेदृष्टिमण्डलम् ॥ तथापि नहीं चिकित्सा करनेवाले मनुष्यके चौथे पटलमें प्राप्त हुआ दोष ॥ ७ नाश करता हुआ दृष्टि मंडलको आच्छादित करता है ॥ तत्र वातेन तिमिरे व्याविद्धमिव पश्यति ॥ ८॥ चलाविलारुणाभासं प्रसन्नं चेक्षते मुहुः॥ जालानि केशान्मशकान्रश्मींश्चोपेक्षि तेन च ॥ ९ ॥ काचीभूते दृगरुणा पश्यत्यास्यमनासिकम् ॥ चन्द्रदीपाद्यनेकत्वं वक्रमृज्वपि मन्यते ॥१०॥ वृद्धः काचो दृशं कुर्य्याद्रजोधूमावृतामिव ॥ स्पष्टारुणाभां विस्तीर्णां सूक्ष्मा वां हतदर्शनाम् ॥ ११ ॥ तहां वायुसे उपजे तिमिररोग में व्याविद्धकी तरह देखता है ॥ ८ ॥ चलायमान और धूमांकी तरह आत्रिल और लाल कांतिवाला और प्रसन्नरूप देखता है और जाल वाल मस किरणों को बारंबार देखता है ऐसे होने में भी जो चिकित्सा नहीं की जावे तो ॥ ९ ॥ इस काचीभूतमें लालरंग वाली दृष्टि नासिकासे वर्जित मुखको देखती है चंद्रमा और दीपक आदिके अनेक पनेको देखती है और सरल पदार्थको भी कुटिल मानती है ॥ १० ॥ व बढाहुआ काचरोग धूली और धूमांसे आवृत हुई की समान और स्पष्ट तथा लाल कांतिवाली और विस्तीर्णरूप सूक्ष्मरूप नष्टहुये दर्शनवाली दृष्टिको करदेता है ॥ ११ ॥ सलिङ्गनाशो वाते तु सङ्कोचयति दृक्छिराः ॥ दृङ्मण्डलं विशत्यन्तर्गभीरा दृगसौ स्मृता ॥ १२ ॥ For Private and Personal Use Only ॥ दृष्टिको
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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