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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम् । स्पर्शकरवावे, और तपायाहुआ लोह तेल जल इन्होंका स्पर्श करवावे, और कशा अर्थात् वेत आदिकोंसे ताडनकरके खट्टे आदिमें विक्षिप्त करदेव ॥ ४९ ॥ अथवा शत्र पत्थर इत्यादिकोंसे रहित शून्यमकानमें स्थिति करवावै और दांत दाढ निकसाये हुये सर्पसे अथवा दमित कियेहुये सिंह और हाथियोंसे ॥ ५० ॥ अथवा राजाके पुरुषोंसे तिसको गावँसे बाहिर लेजाके डर दिखलावे, और राजाकी आज्ञासे इसको बांधकरके ताडना दिवाये ॥५१॥ क्योंकि देहके दुःखोंसे प्राणोंका भय परम कहाहै, इसकारण ऐसे करनेसे सब जगह व्याप्तहुआ तिसका मन शांतिको प्राप्त होजाताहै ।। ५२ ॥ ये सब क्रिया सिद्धहैं देशकाल आदि अपेक्षाकरके युक्त करनी चाहिये ॥ इष्टद्रव्यविनाशात्तु मनो यस्योपहन्यते ॥ ५३॥ तस्य तत्सदृशप्राप्तिसान्त्वाश्वासैः शमं नयेत् ॥ और जिसका मन प्यारे जनका और द्रव्यका विनाशहोनेसे उपहत ॥ १३ ॥ होजावे तिसको तिसीकी तुल्य प्राप्ति करवावे और समझानेके वचनोंकरके तिसको शांतकरै ।। कामशोकभयक्रोधहर्षालोभसम्भवान् ॥ ५४ ॥ परस्परप्रतिद्वन्द्वैरेभिरेव शमं नयेत् ॥ और काम क्रोध भय शोक ईर्ष्या लोभसे उपजे हुये उन्मादोंको ॥ ५४॥ इनहीं इनके प्रति पक्षवाले कामादिकोंसे शांतकरै ॥ भूतानुबन्धमीक्षेत प्रोक्तलिङ्गाधिकाकृतिम् ॥ ५५ ॥ यद्युन्मादे ततः कुर्याद्भूतनिर्दिष्टमौषधम् ॥ ___ और इन कहे ये लक्षणोंसे अधिक आकृतिबालेको जो भूतक अनुषंगसे उपजे हुये उन्मादको देखे तो ॥ ५५ ॥ भूतप्रकरणमें कही हुई औषधको करै ।। बलिं च दद्यात्पललं यावकं सक्तुपिण्डिकाम् ॥५६॥ स्निग्धं मधुरमाहारं तण्डुलाधिरोक्षितान् ॥ पक्कामकानि मांसानि सुरामैरेयमासवम् ॥ ५७ ॥ अतिमुक्तस्य पुष्पाणि जात्याःसह चरस्य च ॥ चतुष्पथे गवां तीर्थे नदीनां सङ्गमेषु च ॥ ५८ ॥ और मांस मोहनभोग सत्तू का पिंड इन्होंकी बलि देवै ॥५६॥ और चिकना तथा मधुर भोजन और रुचिरछिडके हुये चावल पके और कचे मांस मदिरा आसव ॥ १७ ॥ तिवसके फूल चमेलीके पुष्प इन्होंकी बलि चौराहेमें अथवा गौओंके स्थानमें तथा नदीके संगममें देनी चाहिये ॥ ५८ ॥ निवृत्तामिषमयो यो हिताशी प्रयतः शुचिः॥ निजागन्तुभिरुन्मादैः सत्त्ववान्न स युज्यते ॥ ५९॥ और जो मदिरा मांसका भोजन न करे, पवित्ररहै, वह सतोगुणी पुरुष वातादिदोषोंके और आगंतुज उन्मादोंकरके युक्त नहीं होताहै, इस कारण पुरुषको ऐसेही रहना चाहिये ॥ ५९ ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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