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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (७४८) अष्टाङ्गहृदये और कल्कमें जब अंगुलिकरके ग्राहिता नहीं होतीहै, और स्नेहमें अग्निके विषे चटचटा शब्द पना नहीं होताहै ॥ १७ ॥ जब स्नेहके वर्ण गंध रस स्पर्श इन्होंकी संपत् उपजे तब इस स्नेहको शीघ्र अग्निसे उतारे ॥ घृतस्य फेनोपशमस्तैलस्य तु तदुद्भवः॥ १८॥ लेहस्य तन्तुम त्ताप्सु मजनं शरणं नच॥पाकस्सु त्रिविधो मन्दश्चिक्कणखर चिकणः ॥ १९॥ मन्दः कल्कसमेकिञ्चिच्चिकणोमदनोपमे॥ किञ्चित्सीदति कृष्णे च वर्तमाने च पश्चिमः॥२०॥दग्धोऽत ऊर्ध्वं निष्कार्यः स्यादामस्त्वग्निसादकृत् ॥ मृदुर्नस्य खरोऽ भ्यङ्गे पाने वस्तौ च चिकणः ॥ २१ ॥ और पच्यमान घृतके झागोंकी शांति होतीहै और पच्यमान तेलको झागोंकी उत्पत्ति होतीहै तब घृत और तेल पकाजानना ॥ १८ ॥ पकेहुये लेहके तंतुओंकी प्रकटता होती है और जलमें डूबजाना और शरणका नहीं होना, और पाक तीन प्रकारका है मंद चिक्कण खरचिक्कण ॥ १९ ॥ स्नेहपाककी विधिमें जैसे अंगुलिकरके उद्वेष्टितहुआ कल्क प्राप्त होताहै, तैसे स्नेहपाकके अंगुलियाहिता नहीं होती वह स्नेह पाक मंद कहाताहै कुछेक ईषत करनेंमें विखरजावे कृष्णभावमें प्राप्तहोके वर्तिको प्राप्त होजावे वह खरचिक्कण स्नेहपाक कहाताहै ॥ २० ॥ इसके उपरांत दग्धपाक कहाताहै वह स्नेह कार्यके योग्य नहीं होता और कच्चापाकवाला स्नेह मंदाग्निको करताहै, और नस्यकर्ममें मंद और मालिशमें खर चिक्कण और पानमें और बस्तिमें चिक्कण स्नेह लेना योग्यहै ॥ २१ ॥ शाणं पाणितलं मुष्टिः कुडवं प्रस्थमाढकम् ॥ द्रोणं वहं च क्रमशो विजानीयाच्चतुर्गुणम् ॥ २२॥ ___ शाण पाणितल मुष्टि कुडव प्रस्थ आढक द्रोण वह ये क्रमसे चतुर्गुणे जानने और शाण अर्थात् ४ मासे और पाणितल अर्थात् एक तोला और मुष्टि अर्थात् ४ तोले और कुडव अर्थात् १६ तोले और प्रस्थ अर्थात् ६४ तोले और आढक अर्थात् २५६ तोले और द्रोण अर्थात् १०२४ तोले और वह अर्थात् ४०९६ तोले जानने ॥ २२ ॥ द्विगुणं योजयेदाई कुडवादि तथा द्रवम् ॥ सूखे और गीले औषधोंके एक योगमें सूखे द्रव्यसे गीले द्रव्यको दुगुनाप्रयुक्तकरे परंतु जो तुल्य परिमाणसे दोनों कहेहुये होवें तो और तुल्यपरिमाणसे कहेहुये सूखे और द्रवद्रव्यके एक योगमें सूखे द्रव्यसे द्रवद्रव्य कुडवादिपरिमाणकर कहाहुआ दुगुनाकरके प्रयुक्तकरना, नहीं कहेहुये द्रवमें पेषण और आलोडनके अर्थ पानीको प्रयुक्तकरै ॥ पेषणालोडने वारि स्नेहपाके च निद्रवे ॥ २३ ॥ और नहींकहे द्रववाले स्नेहपाकमेंभी पानीको प्रयुक्तकरै ।। २३ ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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