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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ७२६ ) अष्टाङ्गहृदये लालाक्षिविभ्रमैः ॥ जिह्वां खादति निःसंज्ञो दन्तान्कटकटा ययन् ॥ १८ ॥ औषध पीनेवालेके वेगोंके निग्रहसे कुपितहुये बात आदि दोष हृदयमें गमन करके घोररूप हृद्रोगको करते हैं ॥ १७ ॥ तब हिचकी पशलीशूल खांसी दीनपना लाल नेत्रका विभ्रम इन्होंकर के संयुक्त और संज्ञासे रहित और दंतोंको चाबताहुआ वह मनुष्य जीभको खाता है ॥ १८ ॥ न गच्छेद्विभ्रमं तत्र वामयेदाशुतं भिषक् ॥ मधुरैः पित्तमूर्च्छात्तं कटुभिः कफमूच्छितम् ॥ १९ ॥ पाचनीयैस्ततश्चास्य दोषशेषं विपाचयेत् ॥ कायाग्निं च बलं चास्य क्रमेणाभिप्रवर्त्तयेत् ॥ २० ॥ तहां कुशल बैद्य भ्रमको प्राप्त नहीं होवे किंतु संशयको त्यागकर शीघ्र वमन करावे और पित्तकी मूर्च्छासे पीडित हुये तिस मनुष्यको मधुर पदार्थोंसे वमन करावे और कफसे मूर्छित हुये तिस मनुष्यको कडवे पदार्थोंसे वमन करावे ॥ १९ ॥ पीछे इस रोग के शेपरहे, दोषोंको पाचनद्रव्यों करके पका और इसके शरीरकी अग्निके बलको क्रमकरके बढावै ॥ २० ॥ पवनेनातिवमतो हृदयं यस्य पीड्यते ॥ तस्मै स्निग्धाम्ललवणं दद्यात्पित्तकफेऽन्यथा ॥ २१ ॥ अत्यंत वमनको करनेवाले जिस मनुष्यके वायुकरके हृदय पीडित होवे तिसके अर्थ स्निग्ध अम्ल लवण पदार्थ देना, पित्त और कफको कुपितहोनेमं मधुर और शीतल पदार्थको देवै ॥ २१ ॥ पीतौषधस्य वेगानां निग्रहेण कफेन वा ॥ रुद्धोऽति वा विशुद्धस्य गृह्णात्यङ्गानि मारुतः ॥ २२ ॥ स्तम्भवेपथुनिस्तोदसादोद्वेष्टार्तिभेदनैः ॥ तंत्र वातहरं सर्वं स्नेहस्वेदादि शस्यते ॥ २३ ॥ औषध पीनेवालेके वेगोंके निग्रहकरके अथवा कफकरके रुकाहुआ वायु अथवा विशेषकरके शुद्धहुये मनुष्य के वायु अंगों को ग्रहण करता है || २२|| तब स्तंभ कंप चभका शिथिलता उद्वेष्ट शूलभेद ये होते हैं तहां वातको नाशनेवाला स्नेह स्वेदआदि सब पदार्थ श्रेष्ठ हैं ॥ २३॥ बहुतीक्ष्णं क्षुधार्त्तस्य मृदुकोष्ठस्य भेषजम् ॥ हृत्वाऽऽशु विटपित्तकफान्धातूनास्रावयेद्रवान् ॥ २४ ॥ तत्रातियोगमधुरैः शेषमौषधमुल्लिखेत् ॥ योज्योतिवमने रेको विरेके वमनं मृदु ॥ २५ ॥ परिषेकावगाहाद्यैः सुशीतैः स्तम्भयेच्च तम् ॥ क्षुधाकरके पीडितको और कोमल कोष्टवालेको प्रयुक्त किया अत्यंत तीक्ष्ण औषध तत्काल विष्ठा पित्त कफको नष्ट करके द्रवरूप धातुवोंको झिराता है | २४ तहां अत्यंत योजित किये For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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