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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (६९२) अष्टाङ्गहृदयेऔर झिरतेहुये रक्तमें स्थानका धूआं नमक तेल इन्होंकरके लेप हितहै ॥ २३ ॥ सोतहुये तथा वेष्टनसे संयुक्त शरीरमें उपनाहन करना योग्यहै ।। अथापतानकेनार्त्तमस्रस्ताक्षमवेपनम्॥२४॥अस्तब्धमेदमस्वेदं बहिरायामवर्जितम्॥अखटाघातिनं चैनं त्वारतं समुपाचरेत्५॥ और अपतानकसे पीडित नहीं शिथिलहुये नेत्रोंवाले और कंपनसे वार्जत ॥ २४ ॥ और नहीं स्तब्ध हुये लिंगवाले और पसीनेसे रहित और बाह्यायामसे वर्जित और नहीं खट्वामें वातवाले इस रोगीको शीघ्रही चिकित्सित करै ॥ २५ ॥ तत्र प्रागेव सुस्निग्धं स्विन्नाङ्ग तीक्ष्णनावनम्॥ स्रोतोविशुद्धये युंज्यादच्छपानं ततो घृतम् ॥ २६ ॥ विदा-दिगणकाथदधिक्षीररसैः शृतम् ॥ नातिमात्रं तथा वायुाप्नोति सहसैव वा ॥२७॥ तिस अपतानकसे पीडित मनुष्यके अर्थ पहिले अच्छीतरह स्निग्ध और स्वेदित हुये अंगमें स्रोतोंकी शुद्धिके अर्थ तीक्ष्ण नस्यको प्रयुक्त करै, पीछे स्वच्छ पानवाले घृतको प्रयुक्त करे॥२६॥ विदार्यादिगणका काथ दही दूध मांसका रस इन्होंकरके पकाये हुये घृतको प्रयुक्त करै ऐसे करनेसे वायु अतिशय करके तथा वेगसे व्याप्त नहीं होता है ॥ २७॥ कुलत्थयवकोलानि भद्रदादिकं गणम्॥ निःक्वाथ्यानूपमांसं च तेनाम्लैः पयसापि च॥२८॥स्वादु स्कन्धप्रतीवापं महास्नेहं विपाचयेत् ॥ सेकाभ्यङ्गावगाहान्नपाननस्यानुवासनैः॥२९॥ संघ्नन्ति वातं ते ते च स्नेहस्वेदाः सुयोजिताः॥ कुलथी यव वेर भद्रदार्वादिगणके औषध अनूपदेशका मांस इन्होंका काथ बना पीछे तिस क्वाथकरके और कांजी करके दूध करके ॥ २८ ॥ स्वादुद्रव्योंके स्नेहसे संयुक्तकर महास्नेहको पकावै यह सेंक अभ्यंग स्नान अन्न पान नस्य अनुवासन इन्होंकरके ॥ २९ ॥ वायुको नाशताहै और अच्छी तरह प्रयुक्त किये पहिले स्नेह और स्वेद वायुको नाशतेहैं । वेगान्तरेषु मूर्धानमसकृच्चास्य रेचयेत्॥३०॥अवपीडैः प्रधमनैस्तीक्ष्णैः श्लेष्मनिवर्हणैः॥श्वसनासु विमुक्तासु तथा संज्ञांस विन्दति ॥ ३१॥ और वेगोंके अंतरालोंमें बारंबार इस रोगीको माथेका जुलाब दिवावै ॥ ३० ॥ अर्थात् अवपीडोंकरके और प्रधमनोंकरके और तीक्ष्ण तथा कफको नाशनेवाले द्रव्योंकरके छुटीहुई प्राण नाडियोंमें वह रोगी संज्ञाको प्राप्त होना है ॥ ३१ ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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