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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सास्थानं भाषाटीकासमेतम् । (५८७) तं त्वरया जयेत् ॥ वायोरनन्तरं पित्तं पित्तस्यानन्तरं कफम् ॥१२१॥ जयेत्पूर्व त्रयाणां वा भवेद्यो बलवत्तमः। क्षीण हुये कफमें और दीर्घ कालसे उपजे अतिसारकरके दुर्बलहुई गुदामें अपने स्थानमें स्थित होनेवाला वायु निश्चय स्थित होजाताहै ॥ १२० ॥ वह बली वायु शीघ्रही रोगीको मारताहै तिस कारणसे पहिले तिस वायुको जीते और वायुके पश्चात् पित्तको जीतै और पित्तके पश्चात् कफको जीते ॥ १२१ ॥ अथवा तीनों दोषोंमें अत्यन्त बलवान् जो हो तिसको पलिले जीते ॥ भीशोकाभ्यामपि चलः शीघ्रं कुंप्यत्यतस्तयोः ॥ १२२ ॥ का- क्रिया वातहरा हर्षणाश्वासनानि च ॥ १२३॥ और भय तथा शोक करकेभी वायु शीघ्र फुपित होता है इसकारणसे भय और शोकसे उपजे अतिसारोंमें ॥ १२२ ॥ वातको हरनेवाली क्रिया और हर्षण और आश्वासन ये हितहैं ॥१२३॥ यस्योच्चाराद्विना मूत्रं पवनो वा प्रवर्तते। दीप्ताग्नेर्लघुकोष्ठस्य शान्तस्तस्योदरामयः॥ १२४ ॥ ' दीप्त अग्निवाले और हलके कोष्ठवाले जिस मनुष्यके विष्टाके बिना मूत्र अथवा अधोवात प्रवृत्त होजावे तिस मनुष्यका अतिसार रोग गया जानना ॥ १२४ ॥ इति बेरीनिवासिवैद्यपंडितरविदत्तशास्त्रिकृताऽष्टांगहृदयसंहिताभाषाटीकायां चिकित्सितस्थाने नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥ दशमोऽध्यायः। अथातो ग्रहणीदोषचिकित्सितं व्याख्यास्यामः । इसके अनंतर ग्रहणीदोषचिकित्सितनामक अध्यायका व्याख्यान करेंगे। ग्रहणीमाश्रितं दोषमजीर्णवदुपाचरेत् ॥ अतीसारोक्तविधिना तस्यामश्च विपाचयेत् ॥१॥ अन्नकाले यवाग्वादि पञ्चकोलादिभिर्युतम् ॥ वितरेत्पटुलध्वन्नं पुनर्योगांश्च दीपनान् ॥२॥दद्यात्सातिविषां पेयामामे साम्लां सनागराम् ॥ पानेऽतिसार विहितं वारि तकं सुरादि च ॥ ३॥ ग्रहणीमें आश्रित हुये दोषको अजीर्णकी तरह उपाचरित करे और ग्रहणीदोषवाले मनुष्यके आमको अतिसारमें कही विधिकरके पकावै ॥ १॥ अन्नकालमें पीपल पीपलामूल चव्य चीतारांठसे संयुक्त यवागू आदिको देवे और हलके तथा सलोने अन्नको और दीपन करनेवालोंको बारंबार देवै For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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