SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 569
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ५०६ ) अष्टाङ्गहृदये अफारा उदावर्त तमक श्वासस संयुक्त श्वास और हिचकी के रोगी के अर्थ बिजोरा अम्लवेत हींग पीलु मनियारी नमक से युक्त किया अन्न दिया जावे तो वायुको अनुलोमित करता है ॥ ७ ॥ अथवा सेंधानमकसे संयुक्त और विजोराआदि फलसे अम्लीकृत और अल्प गरम विरेचनको देवै । एते हि कफसंरुद्धगतिप्राणप्रकोपजाः ॥ ८ ॥ तस्मात्तन्मार्गशुद्ध्यर्थमूर्द्धाधः शोधनं हितम् ॥ और कफकरके रुकी हुई गति श्वासके प्रकोप से उपजे हुये हिचकी औरं श्वास रोग होते हैं। ॥ ८ ॥ तिसकारण से वायुके मार्गों की शुद्धिक अर्थ वमन और जुलाबके द्वारा शोधन करना हित है ।। उदीर्य्यते भृशतरं मार्ग रोधाद हज्जलम् ॥ ९ ॥ यथानिलस्तथा तस्य मार्गमस्माद्विशोधयेत् ॥ अशान्तौ कृतसंशुद्धेर्धूमैलीनं मलं हरेत् ॥ १० ॥ और मार्ग रुकजानेसे बहुतसा और बहताहुआ जल बढता है ॥ ९ ॥ जैसे मार्गके आवरण से अत्यंत वायु बढता है, इस कारण इसका शोधन करना योग्य है और शुद्धि करके संयुक्त किये श्वास और हिचकी रोगवालेके शांति नहीं होवे तो सूक्ष्मस्त्रोतों में चिपेहुये मलोंको वक्ष्यमाण धूमों करके निकाल ॥ १० ॥ हरिद्रापत्र मेरण्डमूलं द्राक्षां मनःशिलाम् ॥ सदेवदार्वलं मांसी पिष्ट्वा वर्ति प्रकल्पयेत् ॥ ११ ॥ तां घृताक्तां पिवेद्धमं यवान्वा घृतसंयुतान् ॥ मधूच्छिष्टं सर्जरसं घृतं वा गुरु वा गुरु ॥ १२ ॥ चन्दनं वा तथा शृङ्गं वालान्वा स्वायवा गवाम् ॥ ऋक्षगोधा कुरङ्गेणचर्मशृङ्गखुराणि वा ॥ १३ ॥ गुग्गुलुं वा मनोह्वां वा शाल निर्यासमेव वा ॥शल्लकीं गुग्गुलुं लोहंपद्मकं वा घृतप्लुतम् १४॥ हलदी के पत्ते अरंडी जड दाख मनशिल देवदार बालछडको अत्यंत पीसकर बत्ती बनावे ॥ ११ ॥ तिस बत्तीको घृतमें भिगोय अग्निसे प्रज्वलितकर धूमेको पीवै, अथवा घृतसे संयुक्त किये यत्रोंको अग्निसे जलाय धूमेकले पीवै, अथवा मोंम राल घृतको मिलाके अग्निमें जलाय धूमेको पीवै अथवा काले अगरके घूमेको पीवै ॥ १२ ॥ अथवा चंदनके धूमेको पौत्रै, अथवा गायके सर्गिके धूमेको पीवै अथवा गायके गलकंबल से उपजे बालों के धूमेको पीवै अथवा ऋच्छ गोधा एणमृगके चाम सॉंग खुरसे उपजे धूमों को पीवै ॥ १२ ॥ अथवा गूगलके धूमेको पीत्रै अथवा मनशिलके धूमेको पीवै अथवा कोहवृक्षके गौंदके धूमेको पीवै, अथवा शालपिवृक्ष गूगल अगर पद्माखको वृतसे संयुक्तकर अग्नि जलाय धूमेको पीवै ॥ १४ ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy