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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सास्थानं भाषाटीकासमेतम् । (५०१) मेदा महामेदा छोटी खरेहटी बडीखरेहटी मुलहटीके कल्कोंकरके रेशमीवस्त्रको भावितकर पीछे तिसकी बत्ती बना अग्निसे जले धूमेको पीये, पीछे जीवनीय घृतका अनुपान करै ॥ १४८ ॥ मनशिल ढाक तुलसी दालचीनी वंशलोचन सुंठ करके भावित किये कपडेकी बत्ती बना अग्निसे जलाये धूमेंको पीवै. इसपै खाँड ईखका रस गुडके शर्बतका अनुपानहै ॥ १४९॥ गीलीवटशंगकि समान मनशीलको पीस पीछे वृत सहित धूएंको पीवै इसपै अत्यंत अल्प तीतरका भोजन अनुपानहै १९०॥ क्षयजे बृहणं पूर्व कुर्यादग्नेश्च वर्द्धनम् ॥ बहुदोषाय सस्नेहं मृदु दद्याद्विरचनम् ॥ १५१॥शम्याकेन त्रिवृतया मृद्वीकारसयुक्तया॥तिल्वकस्य कषायेण विदारीस्वरसेन च ॥१५२॥ सर्पिः सिद्धं पिबेद्युक्त्या क्षीणदेहो विशोधनम् ॥ क्षयमें उपजी खांसीमें पहिले बृंहण कर्मको करै और पश्चात् अग्निको बढानेके कर्म करै और वहुतदोषोंवाले क्षयखाँसीके अर्थ कोमल और स्नेहसे संयुक्त जुलाब देवै ॥ १५१॥ अमलतास करके अथवा मुनक्कादाखके रससे संयुक्त करी निशोथ करके अथवा शाबरलोधके काथ करके अथवा विदारीकंदके रस करके ।। १५२ ॥ सिद्ध किये और विशोधनप घृतको क्षीण देहवाला मनुष्य युक्तिसे पावै ॥ पित्त कफे धातुषु च क्षीणेषु क्षयकासवान् ॥१५३ ॥ घृतं कर्कटकीक्षीरद्विबलासाधितं पिबेत् ॥ और क्षीण हुये पित्त कफ धातुमें क्षयकी खांसीवाला मनुष्य ॥ १५३ ॥ काकडासिंगी दूध खैरहटी बडीखरेहटीमें साधितकिये वृतको पावै ।। विदारीभिः कदम्बैर्वा तालसस्यैश्च साधितम् ॥१५४ ॥ घृतं पयश्च मूत्रस्य वैवये कृच्छ्रनिर्गमे ॥ और विदारीकंदोंकरके अथवा धाराकदंब आदिकरके अथवा ताडके फलोंकरके साधितकिये ॥१५४॥ घृतको अथवा दूधको वर्णके बदल जाने करके कष्टसे निकलनेवाले मूत्रके विकारमें पीवै ।। शने सवेदने मेढ़े पायौ सश्रोणिवक्षणे ॥१५५॥ धृतमण्डेन लघुनाऽनुवास्यो मिश्रकेण वा ॥ शोजा और पीडासे संयुक्त लिंग गुदा कटी अंडसंधिमें ॥ १५५ ॥ हलके घृतके मंडकरके अथवा गीलेहुये घृत तेल करके मनुष्यको अनुवासित करना योग्यह ॥ जाङ्गलैः प्रतिभुक्तस्य वर्त्तकाद्या बिलेशयाः॥१५६ ॥ क्रमशः प्रसहास्तद्वत्प्रयोज्याः पिशिताशिनः ॥ औष्ण्यात्प्रमाथिभावाच्च स्रोतोभ्यश्यावयन्ति ते॥१५७ ॥ कर्फ शुद्धैश्च तैः पुष्टिं कुर्यात्सम्यग्वहरसः ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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