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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सास्थानं भाषाटीकांसमेतम् । ( ४६९ ) चतस्रः पर्णिनीर्यष्टी फलोशीरनृपद्रुमान् ॥ क्वाथयेत्कल्कयेद्यष्टी शताह्राफलिनीफलम् ॥ १२० ॥ मुस्तञ्च वस्तिः सगुडक्षौद्र सर्पिर्ज्वरापहः ॥ और पृष्टिपर्णी, मुद्गपर्णी, मात्रपर्णी, सालपर्णी मुलहठी, मैनफल, खश, अमलतासका काथ बनावे और मुलहटी, शतावरी, मालकांगनी, मैनफल, नागरमोथा, इन्होंका कल्क बनावे ॥ १२० ॥ पीछे गुड, शहद, व्रत, इन्होंसे युक्त दीहुई बस्ति ज्वरको नाशती है || जीवन्ती मदनं मेदां पिप्पलीं मधुकं वचाम् ॥ १२१ ॥ ऋद्धिं रास्ना वलां बिल्वं शतपुष्पां शतावरीम् ॥पिष्ट्वा क्षीरं जलं सर्पिस्तैलं चैकत्र साधितम् ॥ १२२ ॥ ज्वरेऽनुवासनं दद्याद्यथास्नेह यथामलम् । ये च सिद्धिषु वक्ष्यन्ते वस्तयो ज्वरनाशनाः ॥ १२३॥ और जीवंती, मैनफल, मेदा, पीपल, मुलहटी, बच ॥ २२९ ॥ ऋद्धि, रायसण, खरैहटी, बेलगिरी, सौंफ, शतावरी, इन्होंको जलमें पीस पीछे इसमें दूध घृत तेल इन्होंको मिलाय लेवे ॥ १२२ ॥ फिर इसकी अनुवासन बस्तिको ज्वरमें स्नेह और मलके अनुसार देवे ॥ १२३ ॥ शिरोरुग्गौरव श्लेष्महरमिन्द्रियबोधनम् ॥ जीर्णज्वरे रुचिकरं दद्यान्नस्य विरेचनम् ॥ ९२४ ॥ स्नैहिकं शून्यशिरसो दाहार्ने पित्तनाशनम् ॥ धूमगण्डूपकवलान्यथादोषञ्च कल्पयेत्॥१२५॥ प्रतिश्यायास्यवैरस्यशिरः कण्ठामयापहान् ॥ 1 यह बस्तिकर्म शिरका दर्द और भारीपन, कफको नाशता है, और इंद्रियोंको बोध करता है और जीर्णज्वर में रुचिकरनेवाला नस्य और विरेचन देवै ॥ १२४ ॥ और शून्यशिरवाले पुरुषको स्नेहवाला नस्य देवै, और दाहसे पीडित शिरमें पित्त नाशक नस्य देवे और धूमपान, गंडूषधारण, कवलधारण को दोषके अनुसार कल्पितकरे ॥ १२५ ॥ और प्रतिश्याय, मुखकी विरसता, शिरोरोग, कंठरोग को हरनेवाले धूमादिकों को युक्त करै ॥ अरुचौ मातुलुंगस्य केसरं साज्यसैन्धवम् ॥ १२६ ॥ धात्रीद्राक्षा सितानां वा कल्कमास्येन धारयेत् ॥ यथोपशयसंस्पर्शाञ्छीतो द्रव्यकल्कितान् ॥ १२७ ॥ अभ्यंगालेपसेकादीवरे जीर्णे वाश्रिते ॥ कुर्य्यादञ्जनधूमांश्च तथैवागन्तुजेऽपि तान् ॥१२८॥ और अरुचिमें विजोराकी केसर, घृत, सेंधानमक ॥ १२६ ॥ इन्होंका कल्क मुखमें धारणकरै अथवा आंवला, दाख, मिसरीका कल्क मुखमें धारण करे और यथायोग्य सुहातेहुए स्पर्शवाले और शीतल तथा गरम द्रव्य करके कल्पित ।। १२७ ॥ अभ्यंग लेप क इत्यादिकोंको त्वचाके आश्र यहुए जीर्णज्वर में करे और तैसेही आगंतुजज्वर में अंजन धूमविधिको करे ॥ १२८ ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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