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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सास्थानं भापाटीकासमेतम् । (४५५) ॥ १२ ॥ निद्रा जडता अरुचि को हरता है और प्राणोंका अवलंबनरूप है और इसके विपरीत शीतल जल दोषोंके समूहको बढाता है ॥ १३ ॥ . उष्णमेवंगुणत्वेऽपि युज्यान्नैकान्तपित्तले॥उद्रिक्तपित्ते दवथु दाहमोहातिसारिणी॥१४॥विषमद्योत्थिते ग्रीष्मे क्षतक्षीणेऽस्त्रपित्तिनि ॥ धनचन्दनशुण्ठयम्बु पर्पटोशीरसाधितम्॥१५॥ शीतं तेभ्यो हितं तोयं पाचनं तृड्ज्वरापहम् ॥ और ऐसे गुणोंसे युक्त गरम जलको एकमात्र पित्तवाले ज्वरी पुरुषका तथा अधिक पित्तवाले और दवथु अर्थात् जिसकी आखोंआदिकोंसे गरमभाफ निकसती है, दाह मोह अतिसारवालके विषे युक्त नहीं करै ॥ १४ ॥ और विष मदिरासे उपजे ज्वरमें, ग्रीष्मऋतुमें और क्षतक्षीणमें अर्थात उरःक्षत और धातुक्षीणमें और रक्तपित्तवाले ज्वरमें नागरमोथा चंदन झूठ नेत्रवाला पित्तपापडा खशमें सिद्ध कियाहुआ ॥१५॥ शीतल जल इन सबोंको हितदायकहै, और पाचनहै, तृषा ज्यरका नाशता है ॥ उष्मा पित्तादृते नास्ति ज्वरो नास्त्युष्मणा विना॥ १६ ॥ तस्मात्पित्तविरुद्धानि त्यजेत्पित्ताधिकेऽधिकम् ॥ ___ उष्मा अर्थात् गरमाई पित्तके विना नहीं है और ज्वर उष्माके विना नहीं है ॥ १६ ॥ इस कारण पित्तके विरोध करनेवाली वस्तुओंको त्यागदेवे और पित्ताधिकवरमें विशेषकरके त्यागदेवै ।। स्नानाभ्यंगप्रदेहांश्च परिशेषं च लंघनम् ॥ १७॥ स्नान, मालिस, लेप, परिषेक, लंघन अर्थात् उपवासलक्षणसे रहित कछु मुनका दाख आदिलेना यह सब पित्तञ्चरमें त्यागदे ॥ १७ ॥ अजीर्ण इव शूलनं सामे तीव्ररुजि ज्वरे ॥ न पिबेदौषधं तद्धि भूय एवाममावहेत् ॥ १८ ॥आमाभिभूतकोष्ठस्य क्षीरं विषमहेरिव ॥ सोदर्दपीनसश्वासे जंघापर्वास्थिशूलिनि ॥ १९ ॥ वातश्लेष्मा- . त्मके स्वेदः प्रशस्तःसन्प्रवर्तयेत् ॥ स्वेदमूत्रशकृद्वातान्कुऱ्या दग्नेश्च पाटवम् ॥२०॥ स्नेहोक्तमाचारविधि सर्वशश्चानुपालयेत् ।। अजीर्णज्वरमें, आमज्वरमें और तीव्रपीडावाले ज्वरमें, शूलनाशक औषधको तथा पूर्वोक्त औष. धोंको न पीये, क्योंकि वह फिर आमको प्राप्त करदेती है ॥ १८ ॥ और आमसे युक्त हुए कोष्ठ. वाले पुरुषको औपच ऐसे है कि जैसे अभृतकारक दूध सर्पका विष बढावताहै, और उदर्दरोग, पीनस, श्वास, पीडी, संधिमें शूलवाले ॥ १९ ॥ वातकफवाले ज्वरमें स्वेद, अर्थात् पसीनोंका दिवाना श्रेष्टहै और वह स्वेद, मूत्र विष्ठा, अधोवातको प्रवर्त करता है और अग्निको दीप्त करता ॥ २० ॥ और उसमें स्नेहोक्त आचारविधिको सम्यक् प्रकारसे करै ।। For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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