SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 513
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ४५० ) अष्टाङ्गहृदये मङ्गं सीदति शूल्यते ॥ मज्जावृते विनमनं जृम्भणं परिवेष्टनम् ॥ ॥ ३७ ॥ शूलञ्च पीड्यमानेन पाणिभ्यां लभते सुखम् ॥ और मेदकरके आवृतहुये वायुमें चलरूप चिकना, कोमल शीतल शोजा अंगों में अरोचक ३५॥ उपजता है, यह वातरक्त कष्टसाध्य जानना और हड्डियों करके आवृत हुये वायुमें अत्यंत उष्ण स्पर्श और पीडनको चाहता है || ३६ || और सूची की तरह अंग अत्यंत पीडित होता है, और शिथिल तथा शूल करके संयुक्त अंग होता है और मज्जा करके आवृत हुये वायुमें अंगों का नमजाना, जंभाई, परिवेष्टन ॥३७॥ शूल होते हैं, और हाथोंसे पीडित करके सुखकी लब्धि होती है. शुक्रावृतेऽतिवेगो वा न वा निष्फलताऽपि वा ॥ ३८ ॥ भुक्ते कुक्षौ रुजा जीर्णे शाम्यत्यन्नावृतेऽनिले ॥ सूत्राप्रवृत्तिराध्मानं बस्तौ मूत्रावृते भवेत् ॥३९॥ विडावृते विबंधोऽधः स्वस्थाने परिकृन्तति ॥ व्रजत्याशु जरां स्नेहो भुंक्ते चानद्यते नरः ॥ ४० ॥ शक्कृत्पीडितमन्नेन दुःखं शुष्कं चिरात्सृजेत् ॥ सर्वधात्वावृते वायौ श्रोणीवणपृष्ठ रुक् ॥ ४१ ॥ विलोमो मारुतोऽस्वस्थं हृदये पीड्यतेऽति च ॥ और वीर्य करके आवृत हुये वायुमें वीर्यका अत्यंत वेग अथवा वीर्यकी निष्फलता होजाती हैं ॥ ३८ ॥| और अन्नकरके आवृतहुये वायुमें भोजन करने के समय कुक्षिमें पीडा होती हैं, और भोजनके जीर्णपनेनें वह पीडा शांत होजाती है और मूत्रकरके आवृतहुये वायुमें मूत्रकी अप्रवृत्ति और बस्तिस्थानमें अफरा उपजता है ॥ ३९ ॥ विष्ठा करके आवृतहुये वायुमें गुदामें नीचेको बंध तथा तत्काल स्नेह वृद्धभावको प्राप्त होता है, और भोजन करनेमें मनुष्य अफारेसे संयुक्त हो जाता है ॥ ४० ॥ तब अन्नकरके पीडित और चिरकाल करके सूखा और दुःखरूप विष्ठा निकलता है, और सब धातुओं करके आवृतहुये वायुमें कटिं, अंडसंधि, पृष्ठभाग में शूल ॥ ४१ ॥ और विगुणरूप वायुका होजाना, और व्याकुलहुआ हृदय अत्यंत पीडित होता है । भ्रम मूर्च्छा रुजा दाहः पित्तेन प्राण आवृते ॥ ४२ ॥ विदग्धेऽ च वमनमुदानेऽपि भ्रमादयः ॥ दाहोऽन्तरूर्जाभ्रंशश्च दाहो व्याने च सर्वगः ॥ ४३ ॥ कुमोङ्गचेष्टासङ्गश्च ससन्तापः सवेदनः ॥ समान ऊष्मोपहतिरतिस्वेदोऽरतिःसतृट् ॥ ४४ ॥ दाहश्च स्यादपाने तु मले हारिद्रवर्णता ॥ रुजोऽतिवृद्धिस्तापश्च योनि मेहनपायुषु ॥ ४५॥ श्लेष्मणा त्वावृते प्राणे सादस्तंद्रारुचिर्वमिः॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy