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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निदानस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (४२३) ष्ठीवनोऽल्पवाक् ॥ अन्नविछिशिरद्वेषीशीर्णरोमा हतानलः ॥६॥ सन्नसक्थिवरी श्वासी कर्णक्ष्वेडी भ्रमी श्रमी॥ यथायोग्य कहे कोपनरूप द्रव्यों करके कुपितहुये पित्तकी प्रधानतावाले वातादि दोष पांडुरोगके कारण हैं तिन्होंमें बलवाले वातकरके फेंका हुआ हृदयमें स्थित होनेवाला पित्त ॥ १ ॥ दशधमनियोंमें प्राप्त हो सकल शरीरमें व्याप्त होजाता है और त्वचा मांसके मध्यमें आश्रितहुआ वही पित्त कफ त्वचा रक्त मांस दूषित कर ॥ २ ॥ पछि त्वचामें अनेक प्रकारवाले और पांडु पीले हरे वौँको करता है तिन्होंमें पांडुपनेकी अधिकता होती है ॥ ३ ॥ इसवास्ते पांडुरोग कहाता है तिस पांडुरोगकरके रस आदि धातुओंका भारीपन शिथिलता होती है बल आदि पराक्रमके गुणोंका नाश होता है ।। ४ ॥ तिसी कारणसे अल्परूप रक्त मेदवाला और सारसे रहित शिथिलरूप इन्द्रियोंवाला मर्दित हुये अंगके अवयवोंकरके उपलक्षितकी तरह गिरतेहुये हृदयकरके संयुक्त ॥५॥ शोजासे संयुक्त नेत्रकूटवाला अंगोंकी शिथिलतासे संयुक्त कोपवाला और थूकनेवाला अल्पबोलनेवाला अन्न और शीतल पदार्थका वैरी नष्टहुये रोमोंवाला नष्टहुए अग्निवाला ॥ ६ ॥ ढीले सक्थि अंगोंवाला ज्वरवाला श्वासवाला कर्णक्ष्वेड रोगवाला भ्रमवाला श्रमवाला मनुष्य होजाता है । स 'पञ्चधा पृथग्दोषैः समस्तैर्मृत्तिकादनात् ॥७॥ प्राग्रूपमस्य हृदयस्पन्दनं रूक्षता त्वचि ॥अरुचिः पीतमूत्रत्वं स्वेदाभावोऽ ल्पवह्निता ॥८॥ सादः श्रमोऽनिलात्तत्र गात्ररुक्तोदकम्पनम्॥ कृष्णरूक्षारुणशिरानखविण्मूत्रनेत्रता ॥९॥शोफानाहास्यवैरस्यविछोषाः पार्श्वमूर्धरुक् ॥ पित्ताद्धरितपीताभशिरादित्वं ज्वरस्तमः॥१०॥ तृट्स्वेदमूछाशीतेच्छा दौर्गन्ध्यंकटुवता॥ वर्चाभेदोऽम्लको दाहः कफाच्छुक्लशिरादिता ॥ ११॥ तन्द्रा लवणवक्रत्वं रोमहर्षः स्वरक्षयकासच्छर्दिश्च निचयान्मिश्रलिङ्गोऽतिदुःसहः ॥१२॥मृत्कषायानिलं पित्तमूषरामधुराकफम् ॥ दूषयित्वा रसादींश्च रौक्ष्याद्भुक्तं विरूक्ष्य च ॥१३॥स्रोतांस्यपक्तैर्वापूर्य कुर्याद्रुद्धा च पूर्ववत् ॥ पाण्डुरोगं ततः शूननाभिपादास्यमेहनः॥१४॥पुरषि कृमिमन्मुञ्चेद्भिन्नं सासृक्कफनरः॥ वह पांडुरोग वात पित्त कफ सन्निपात मट्टीके खानेसे पांचप्रकारका है ॥ ७॥ इस पांडु रोगके पूर्वरूपको कहतेहैं-हृदयका कुछेक चलना त्वचामें रूखापन अरुचि मूत्रका पीलापन पसीनेका नहीं आना और अग्निका मंदपना ॥ ८ ॥ अंगोंकी शिथिलता परिश्रम तब पांडुरोगका पूर्वरूप उपजे जानों तिन पांडुरोगोंके मध्यमें वातसे उपजे पांडुरोगमें शरीरमें शूल चभका कांपना For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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