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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निदानस्थानं भाषाटीकासमेतम् । अत्यंत मधुर मूत्रको मूतता है ॥ ९ ॥ रात्रिमें स्थितहुआ जो करडा होजावे ऐसे मूत्रको सांद्रप्रमेहवाला मूतता है और सुराप्रमेहवाला मदिराके समान और ऊपरले भागमें पतला और , नीचके भागमें गाढा मूत्रको मूतता है ॥ १०॥ पिष्टप्रमेहकरके रोमांचवाला मनुष्य होके पीठीके सदृश और बहुतसा सफेदरंगसे संयुक्त मूत्रको मूतता है और शुक्रप्रमेहवाला वर्यिके समान कांतिवाला अथवा वीर्यसे मिलाहुआ मूतता है ॥ ११॥ और सिकता प्रमेहवाला वालुरेतरूप और मलरूप और मूत्रके किणकेको मूतता है और शीतप्रमेहवाला अत्यन्त बहुतसा और मधुर अत्यन्त शीतल मूतता है ॥ १२ ॥ शनैः प्रमेहवाला मन्द मन्द मूतता है और लालाप्रमेहकरके लालकी तांतोंसे संयुक्त और पिच्छिल मूत्रको मूतता है ॥ १३ ॥ गन्धवर्णरसस्पर्शः क्षारेण क्षारतोयवत् ॥ नीलमेहेन नीलाभं कालमेही मषीनिभम् ॥ १४॥ हारिद्रमेही कटुकं हरिद्रासनिभं महत् ॥ विस्त्रं माञ्जिष्ठमेहेन मञ्जिष्ठासलिलोपमम् ॥१५॥ विस्रमुष्णं सलवणं रक्ताभं रक्तमेहतः ॥ क्षारप्रमेहकरके गंध, वर्ण, रस, स्पर्श करके खारके पानीकी तरह मूतता है और नीलप्रमेह करके गन्ध, वर्ण, रसस्पर्श करके नलिकांतिवाले मूत्रको मूतता है और कालप्रमेहवाला श्याहीके समान मूत्रको मूतता है ॥ १४ ॥ हारिद्रप्रमेहवाला कडुआ और हलदीके समाम कांतिवाला और जलताहुआ मूतता है और मांजिष्ठप्रमेहवाला मंजीठके पानीके समान उपमावाले और कच्ची गन्धवाले मूत्रको मूतता है रक्तप्रमेहवाला ॥ १५ ॥ कच्चीगन्धसे संयुक्त और गरम और नमकसे संयुक्त और लाल कांतिवाला मूत्रको मूतता है ॥ वसामेही वसामिश्रं वसां वा मूत्रयेन्मुहुः॥ १६ ॥ मज्जानं मजमिश्रं वा मजमेही मुहुर्मुहुः॥ हस्ती मत्त इवाजस्रं मूत्रं वे. गविवर्जितम् ॥१७॥सलसीकं विबद्धं च हस्तिमेहीप्रमेहति॥ मधुमेही मधुसमं जायते स किल द्विधा ॥ १८॥ क्रुद्धे धातुक्षयादा यो दोषावृतपथेऽथवा ॥ आवृतो दोषलिङ्गानि सोनिमित्तं प्रदर्शयेत् ॥ १९ ॥ क्षीणः क्षणाक्षणात्पूर्णो भजते कृच्छ्रसाध्यताम् ॥ और वसाप्रमेहवाला वसासे मिलेहुये मूत्रको अथवा वसाको बारंबार मूतता है ॥ १६ ॥ मजप्रमेहवाला मज्जाको अथवा मज्जासे मिलेहुये मूत्रको बारंबार मूतता है और उन्मत्तहुए हाथी समान निरन्तर और वेगसे वार्जित ॥ १७ ॥ और लसीकासे सहित और विबद्ध मूत्रको हस्तिप्रमेहवाला मूतता है और मधुप्रमेहवाला शहदके समान मूत्रको मूतता है और वह मधुप्रमेह दो प्रकारका For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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