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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३९० ) अष्टाङ्गहृदये माडा और उत्साहकी नष्टतावाला दीन और सहनेवाला प्रभासे अत्यंत रहित सारसे रहित छाया से रहित और कीडोंकर के संयुक्त हुये वृक्षकी तरह स्थित ॥ २३ ॥ मर्मको पीड़ित करनेवाले सब उपद्रवोंसे ग्रस्त और खांसी, पिपासा, मुखका विरसपना, श्वास, पीनस करके ग्रस्त, ॥ २४ ॥ ग्लानि, अंगभंग, छर्दि, छींक, शोजा, ज्वर इन्होंसे संयुक्त, नपुंसकपना, बधिरपना तिमिरपना शर्करा, पथरी करके पीडित || २५ || मांडा और भिन्नस्वरवाला बारंबार चिंतमन करनेवाला, थुकथुकी और अरुचीवाला, सब संधिकी हड्डी, हृदय, नाभि, गुदा, अंडसंधि में शूलवाला ॥२६॥ डाव और गहुआदिका पसीनाके समान कांतिवाली पीछाको झिरातीहुई गुदाकरके कदाचित् हुआ कदाचित् मुक्त और कदाचित् सूखा, कदाचित् गीला, कदाचित् पक्क, कदाचित् कच्चा ॥ २७ ॥ पांडु पीला हरित रक्त और पिच्छिल विष्ठाको उपवेशित करता है | गुदाङकुरा बह्वनिलाः शुष्काश्चिमिचिमान्विताः ॥२८॥ म्लानाः श्यावारुणाः स्तब्धा विषमाः परुषाः खराः ॥ मिथो विस दृशा वक्रास्तीक्ष्णा विस्फुटिताननाः॥२९॥बिम्बीकर्कन्धुखर्जूरकार्पासीफलसन्निभाः ॥ केचित्कदम्बपुष्पाभाः केचित्सिद्धार्थ कोपमाः ॥ ३०॥ शिरः पास्वसिक ट्यूरुवङ्क्षणाभ्यधिकव्यथाः ॥ क्षवथूद्गारविष्टंभहृद्ग्रहारोचकप्रदाः ॥३१॥ कासस्वासाग्निवैषम्यकर्णनादभ्रमावहाः । तैरातों ग्रथितं स्तोकं सशब्दं संप्रवाहिकम् ॥३२॥ रुक्फेनपिच्छानुगतं विबद्धमुपवेश्यते ॥ कृष्णत्वङ्नखविण्मूत्रनेत्रवचश्च जायते ॥ ३३ ॥ गुल्मप्लीहोदराष्ठी लासम्भवस्तत एव च ॥ गुदा अंकुर जो वातकी अधिकतावाले होते हैं, ये सूखे और चिमचिमपनेसे अन्वित ||२८|| और म्लान, धूम्ररंगके तथा रक्त और स्तब्ध और विषमस्थितहुये कठोर तीक्ष्ण और आपस में सदृशपनेकरके रहित और टेढे अत्यंत तेज फुटितद्वये मुखबाले ॥ २९ ॥ बिंबी, बडवेरी, खजूर, कपास, इन्होंके फलके समान कांतिवाले और कितनेक कदंबके फूलके समान कांतिवाले और कितनेक शरसोंके समान उपमावाले ॥ ३० ॥ और शिर, पराली, कंधा, कटी, जाँघ, अंडसंधिमें अधिकपीडावाले और छींक, डकार, विष्टंभ, हृदयका बंधन, अरुचीको देनेवाले ॥ ३१ ॥ खाँसी श्वास, अग्निकी विषमता, कर्णनाद, भ्रमको देनेवाले मस्से होते हैं तिन्होंकर के पीडित मनुष्य गावाला और अत्यंत थोडा शब्दकरके सहित और वहनेवाला || ३२ || और शूल, झाग पिच्छा इसे अनुगत और बँधे हुए मलको निकासता है और त्वचा, नख, विष्ठा, मूत्र, नेत्र, मुखका कालापन होजाता है ॥ ३३ ॥ और तिन गुदाके अंकुरोंसे गुल्म, प्लीहारोग. उदररोग, ★ टीकी उत्पत्ति होती है ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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