SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 425
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (३६२) अष्टाङ्गहृदयेवातआदि कोईसा दोष दूष्यआदिके बलको ग्रहणकर ॥ ६४ ॥ और प्रत्यनीककरके सहित और क्षय तथा वृद्धिको सेवनेवाला पूर्वोक्त दोष विषमज्वरको करता है ।। दोषः प्रवर्तते तेषां स्वे काले ज्वरयन्बली॥६५॥ निवर्तते पुनश्वैष प्रत्यनीकबलाबलः॥क्षीणे दोषे ज्वरः सूक्ष्मो रसादिष्वेवलीयते ॥६६॥ लीनत्वात्कार्यवैवर्ण्यजाड्यादीनादधातिसः॥ और तिन कृशआदि मनुष्योंके वातआदि कोईसा दोष अपने कालमें संतापको उत्पन्न करता हुआ और बलवान् होके प्रवृत्त होताहै ॥६५॥ और प्रत्यनकिके बलकरके हीनबलवाला वही दोष फिर निवृत्त होजाता है और विषमज्वरको करनेवाले दोषको क्षीण होने सूक्ष्मरूप वह ज्वर रस आदि धातुओंमें लीन होजाता है ।। ६६ ॥ तब लीनपनेसे कृशपना, वर्णका बदलजाना, जडपना इनआदिको वह दोप धारण करता है। आसन्नविवृतास्यत्वात्स्रोतसां रसवाहिनाम् ॥६७॥ आशु सर्वस्य वपुषो व्याप्तिदोषेण जायते॥ सन्ततः सततस्तेन विप‘परीतो विपर्ययात् ॥ ६८॥ आसन्न और खुले मुखवाले रसको बहनेवाले स्रोतोंके होनेसे ॥६७॥ शीघ्रही सकल शरीरकी व्याति दोषकरके होजाती है तिसकरके वह संतप्तचर सततरूप होजाता है और विपरीतपनेसे विपरीत होता है ॥ ६८ ॥ विषमो विषमारम्भक्रियाकालोऽनुषगवान् ॥ दोषो रक्तांश्रयः प्रायः करोति सततं ज्वरम् ॥६९ ॥ अहोरात्रस्य स द्विःस्यात्सकृदन्येयुराश्रितः ॥ तस्मिन्मांसवहा नाडीमदोनाडीस्तृतीयके ॥७०॥ ग्राही पित्तानिलान्मूर्धस्त्रिकस्य कफपित्ततः॥ सपृष्ठस्यानिलकफात्सचैकाहान्तरः स्मृतः ॥७१॥ विषमरूप आरंभ और विषमरूप क्रिया और विषमरूप काल,विषमरूप कालानुबंध इन्होंवाला विषमज्वर होता है और प्रायताकरके रक्तमें आश्रित हुआ दोष सतत ज्वरको करता है ॥ ६९ ॥ यह दिनरात्रिके मध्यमें दोकाल प्रवृत्त होता है और दिनरात्रिके मध्यमें एकबार प्रवृत्त होवे वह अन्येधुज्वर कहाता है तिस अन्येाज्वरमें मांसको बहनेवाली नाडियोंमें दोष आश्रित रहता है और तृतीयकज्वरमें मेदको बहनेवाली नाडीमें दोष आश्रित रहता है ॥ ७० ॥ कफ और वातकी अधिकतासे शिरको ग्रहणकरके तृतीयकज्वर उपजता है अर्थात् शिरमें अनेकप्रकारकी पीडाओंको करताहै कफ और पित्तकी अधिकतासे उपजा तृतीयकज्वर काटिके समीपमें पीडाको करता है वात और कफकी अधिकतासे उपजा तृतीयकज्वर पृष्ठभागमें पीडाको करता है और यही मुनिजनोंने एकाहांतर नामसेभी कहा है ।। ७१ ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy